नागरीप्रचारिणी पत्रिका वर्ष ५ अंक ३-४ | Naagripracharini Patrika Varsh 5 Ank 3-4
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
156
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समरतरंग २११
ऊपर लेता हूँ । उत्तर प्रिला कि इस प्रकार की बातचीत में ऐसी भेटों के लिये कोई
स्थान नहीं हैे। अंत में राजाराम पंडित ने हेस्टिंग्स से स्वयं मिलने की इच्छा
प्रकट की जिसे ऐंडर्सन ने समान लिया । २६ माच १७८१ को नागपुर के राजदूत
कलकत्ते में गचर्नर जनरल से मिले । राजदूतों ने पचास लाख की माँग की, फिर
धीरे घीरे घारह ज्ञाख तक उतरे ओर पचीस लाख ऋण माँगा | अंत मे, लगभग
एक मास की बातचीत के बाद, ६ मई १७८१ को दोनों पक्षो मे एक प्रारंभिक सम-
भौता हुआ--अंग्रेज तेरह लाख रुपए चिप्तना जी को देंगे ओर दस लाख ऋण
बंगाल से प्राप्त करने में सहायता करेंगे। बिमना जौ की सेना तुरत उड़ीसा छोड
देगी । दो हजार मराठा घुड़सवार अंग्रेजों के खर्च पर कनेल पियसे की सेना का
साथ देंगे और अंग्रेज गढ़ मंडला की चढ़ाई में नागपुर की सहायता करेंगे।
इस प्रकार संधिस्थापन का प्रयन्न सफल दहो गया। इस पर हेस्टिंग्स ने यह
टिप्पणी की थी--'राजाराम पंडित के प्रस्तावों को स्वीकार कर मने, अपने
विरुद्ध स्थापित संघ में से एक बड़े शक्तिशाज्ञी रभ्य को फोड़ लिया,
अंग्रेजो और बरार को सरकार के बीच संधि होना को सावारण बात नहीं है ।
इस समाचार के श्रवण मात्र से ल्लोग ऐसे प्रभावित हो जायेंगे कि उसका बहुत बड़ा
परिणाम होगा । भारत के देशी राज्यों की सम्मिलित शक्ति के आगे अब्र दम हस्फे
सिद्ध नहीं होंगे, बल्कि हमारा पलड़ा भारी द्वो ज्ञायगा। हमारे लिये অহ बड़े
महत्त्व की घात है। यूरप के लोग इसकी कल्पना नहीं कर सकते। बह्ँ राष्ट्रों की
नीति एशिया के विपरीत सिद्धान्तो पर निधीरित होती दै। बं रामे युद्ध
दिने पर पड़ोसी राष्ट्र दुबेल राष्ट्र की सद्दायता करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि
शक्ति के समुचित संतुलन पर द्वी उनकी रक्षा अवलंबित है। परंतु एशिया में विजित
जाति की छूट में भाग लेने की इच्छा तथा सबल्ल राष्ट्रों के आतंक से नीति का निघो-
रण द्वोता दै । *** और न हमें यह आशंका करनी चाहिए कि हमने खन्द जो रकम
दी दे उसके लोभ से वे फिर कभी इन प्रांतों में आाएँगे। वे श्रच्छी तरद जानते हैं
कि इस चढ़ाई में उन्हें कितने कष्ट केलने पड़े हैं, कितना खच करना पढ़ा है भौर
पने उड़ीसा प्रांत पर उन्होंने कितनी मुसीबतें ढा दी हैं। यहद्द सोचना व्यथ हे
कि लगभग एक करोड़ का व्यय वहन कर वे फिर कभी तीस हजार घुड्सबार सेना
संघटित करेंगे ओर बारह लाख की रकम पाने के लोभ से पहाड़ों ओर जंगलों से
भरा हजार मील लंबा रास्ता पार करेंगे ।
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