महाकवि आचार्य विद्यासागर ग्रंथावली | Mahakavi Acharya Vidhyasagar Granthawali

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Book Image : महाकवि आचार्य विद्यासागर ग्रंथावली  - Mahakavi Acharya Vidhyasagar Granthawali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[तौ व नच-------चनव~=------- शिथिलाचार का निषेध करते हुए कहा है कि नग्न होने मात्र से मोक्ष मार्ग || नहीं होता है क्योंकि नग्न तो पशु भी होते हैं यथा - | न हि कैवल्य साधनं केवलं यथाजातप्रसाधनम्‌ ' चेन्न पशुरपि साधन व्रजेदव्ययमञ्जसा धनम्‌ ।178॥ श्रमण का परमात्मा से अनुराग किए बिना कल्याण नहीं हो सकता है । कवि ने कहा है कि जो परिग्रहो को त्यागकर, इन्द्रियों को वश में कर अपनी रलव्रय रूपी खेती को विशुद्ध भावों से सिचन करते हैं, ऐसे साधुओं की मेँ वन्दना करता हूँ । इस प्रकार इस काव्य में अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध भावों को प्राप्त करने की प्रेरणा दी हे । शब्द संचय करने में कवि ने विश्वलोचन कोश का प्रयोग किया है । श्लोकों मे शब्दों कौ कठिनता दृष्टिगोचर होती है । काव्य में अनुप्रास, श्लेष तथा यमक प्रमुखता लिए हुए हैं । क्वचित्‌, कदाचित्‌, उत्प्रेक्षायें अभिव्यंजित होती है । पद लालित्य ध्वनि तथा अर्थगौरव पदे-पदे विद्यमान है | यह ग्रन्थ आर्याहन्द में लिखा गया है । पाँच श्लोकों में मंगलाचरण है, जिसमें वर्धमान स्वामी, भद्रबाहु, कुन्दकुन्द आचार्य, स्व॒ गुरु आचार्य ज्ञानसागर एवं सरस्वती का स्तवन किया हे । 94 श्लोकों मेँ कवि ने श्रमणो को आध्यात्मिक दृष्टि सै हेय-उपादय का उपदेश दिया है । अन्त में 100वें श्लोक में अपनी लघुता एवं 101वें श्लोक मेँ गुरु ज्ञानसागर एवं स्वय का नाम श्नेषात्मक दग से निबद्ध किया है, 6 श्लोकों मेँ प्रशस्ति दौ है, जिसमे कहा है कि ज्ञानसागर के शिष्य विद्यासागर ने विक्रम मम्वत्‌ 2031 वैशाख शुक्ला पूर्णिमा को यह काव्य पूर्णं किया । इस प्रकार कुल 107 छन्द इस काव्य ग्रन्थ में हैं । प्रशस्ति के ঘন मेँ छन्द भिनता भी है, अत. उन्ँ ग्रन्थ कौ मृल संख्या मे न जोडुकर्‌ अलग से दिया है (101 + 6) मूल श्लोकों का अन्वय एव वसन्ततिलका छन्द में हिन्दौ पद्यानुवाद कवि ने स्वय किया गया है । यह अनुवाद -शब्दानुवाद न होकर भावानुवाद है । यह काव्य ग्रन्थ पूर्व में कई स्थानों से प्रकाशित किया जा चुका है । निरञ्जन शतकम्‌ जैसा कि इस ग्रन्थ का नाम है वैसे ही अञ्जन से रहित शुद्ध आत्म तत्त्व का वर्णन करने वाला है । इसमे कवि ने स्वयं के द्वारा स्वयं को उपदेश दिया है, क्योकि एक आदर्श आचार्य पर- कल्याण के साथ-साथ स्वयं के कल्याण में भी निहित रहते हैँ । कवि भी एक सम्यक्‌ आदर्शं आचार्य परमेष्ठी है । कवि ने संसार ३) को विपदाओं का कारण माना और निजपद को ही विपदाओ से रहित कहा । यथा - परपदं हयपदं विपदास्यदं निपदं च निरापदम्‌ इति जगाद जनाढ्भरविर्भवान्‌ हानुभवन्‌ स्ववान्‌ भववैभवान्‌ ।७॥ | शद्ध निरंजन स्वरूप को प्राप्त करने के लिए कवि ने भगवान कौ भक्ति |॥




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