जैन विज्ञान विचार संगोष्ठी | Jain Vigyan Vichar Sangoshti
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
88
श्रेणी :
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No Information available about हजारीलाल शिखरचंद जैन - Hajarilal Shikharchand Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संगोष्ठी की बुनावट में आदि से लेकर अंत तक सुघड़ता बराबर बनी रही। तीन विनों
तक अनेक विद्धानों ओर अध्येताओं -विचारकों ने, अनेक प्रांसगिक विषयों पर अपने
अध्ययनों- अनुभवों का सार-संक्षेप प्रस्तुत किया। एक-दूसरे की प्रस्तुतियों पर विचार-
विमर्श किए, उन पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाए और अपनी जिज्ञासाओं के समाधान तला-
शने का प्रयास किया। पर, उस सारे मंथन का नवनीत पूज्य मुनिश्री ने एक छोटे से वाक्य
में, अपने मंगल आशीष की तरह प्रदान किया। उनका वह गहन अर्थ-वाहक वाक्य था -
“विज्ञान अपूर्णं धर्म है , परन्तु धर्म परिपूर्ण विज्ञान है।!!
संगोष्ठी की सर्वोपरि उपलब्धि यह रही कि उसमे माटी -पानी, अभि, वायु ओर
वनस्पति के अनिवार्य उपयोग में प्राणी-हिंसा की आशंकाओं और अहिंसा की सम्भाव-
नाओ को गृहस्थ -चर्या और साधु-चर्या, दोनों के संदर्भ में पहचानने की बेबाक और
ईमानदार कोशिश की गई। विशेषकर वनस्पति के उपयोग को लेकर सूक्ष्मतम बिश्लेषणाएं
सामने आई। उन पर विस्तार से विचारों का आदान-प्रदान हुआ। उन्हें अनाग्रही मन से
समझने का प्रयास किया गया। इस चर्चा के माध्यम से भोजन-पान को लेकर अनेक
धारणाओं को आगम ओर आधुनिक विज्ञान के आलोक में देखने -समझने का अवसर
मिला। अनेक शंकास्पद अवधारणाओं की प्रामाणिकता सिद्ध हुई और कुछ प्रवर्तमान
पद्धतियों के औचित्य पर प्रश्न-चिन्ह लग गए। कुल मिलाकर यह वैचारिक-आयोजना
सामान्य श्रावक की दैनिक चर्या के लिए उपयोगी और स्वास्थ्यकर लगी।
संगोष्ठी के सन्न-संचालन की सेवा मुझे सौंपी गई थी। मेरी सबसे बड़ी कठिनाई यह थी
कि ऐसी सभा में, जो आबाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुषों से भरी हो, विज्ञान जैसे शुष्क और नीरस
विषय को शान्ति-पूर्वक सुनने का वातावरण कैसे बना रहे! क्या उपाय किया जाए कि
शौध-पत्र वाचन की प्रक्रिया उबाऊ न होने पावे। परन्तु मेरा सौभाग्य धा कि मेरे प्रायः सभी
विद्वान मित्रों ने मुझे बहुत सहयोग दिया और हर श्रोता ने ऐसे आत्म-संयम का परिचय
दिया कि मेरा काम स्वतः आसान होता चला गया। इस सौजन्य के लिए मैं गुना के उन
सभी श्रोताओं का सदा आभारी रहूंगा।
संचालन के लिए मैने एक विशेष पद्धति का सहारा उन तीन दिनों के लिए ले लिया जो
गोष्ठियों के संचालन की स्वीकृत पद्धति नहीं मानी जाती। प्रत्येक विद्वान के वक्तन्य के
उपरान्त अगले विद्वान को आमंत्रित करते समय मैं स्वयं प्रस्तुत वाचन पर कोई प्रश्न
उठाता या अपनी संक्षिप्त-सी टिप्पणी दे देता था! इस बहनि उसी शोध-पत्र मे से श्रोता
समाज को कुछ जीवनोपयोगी व्यावहारिक सूत्र मिल जाते थे] अंतिम वक्ताके बाद मुझे
अपनी टिप्पणी द्वारा पूज्य मुनिश्री के उदबोधन की भूमिका भी तैयार करनी होती थी। मुझे
बराबर महसूस होता था कि यह करके मैं सन्न के अध्यक्ष के अधिकार पर अतिक्रमण करने
का अपराध कर रहा हूँ, पर उपरोक्त कारणों से मैं ऐसा करने के लिए बाध्य था। शायद
3/जैन विज्ञान विचार संगोष्ठी
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