स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी-उपन्यास साहित्य की समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि | Svatantrayotar Hindi - Upanyas Sahitya Ki Samajshastriya Prashthbhoomi

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Svatantrayotar Hindi - Upanyas Sahitya Ki Samajshastriya Prashthbhoomi by स्वर्णलता - Svarnlata

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्द उपन्यास साहित्य के दो दशक [ $ यधाये अध्ययन करने के लिए ऐसे विज्ञान की रूपरेखाँ तेयार को जिसे उन्होंने समाज- शास्त्र कहा । उन्होने ` प्रपनी पुस्तक (०५१७ ८ 70510%০ 70110500016) में समाजशास्त्र फी रूपरेखा प्रस्तुत की है 1 १. (क) प्ामाजिक तया समाजशास्त्रोय इष्टि मे प्रत्रर समाज के विकास की प्रत्रिया साहित्य की समस्त विधाश्रों में प्रतिबिम्बित हॉंती रही है । समाज में होने वाले घात-प्रतिघात उनसे उत्पन्न होने वाले सम्बन्धो तथा समस्याश्रो का विशद्‌ वणन हमे साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा उपन्यास मे हो उपलब्ध होता है, वयोकि समाज का भर्थ सामाजिक श्नन्त क्रिया (50081 वध४०४०॥) है । जव तक भावों का भादान-प्रदान तथा सामाजिक भन्त क्रिया न हो तव तक समाण का अस्तित्व सम्भव नहीं ॥* प्रत्येक सम्बन्ध साभाजिक नही होता जैसे रेल मे बंठे हुए व्यक्ति एक दूसरे से जब तक परिचित नहीं होते, वह्‌ तब तब व्यक्तियों गा केवल समूह है, पर जैसे ही वह एक दूसरे से परिचित होते हैं, उनकी पारस्परिक प्रतीति (#फ6- 155) से जा क्रिया-प्रतिक्रिया होती है उससे सामाजिक सम्बन्ध उत्पन्न होते हैं। पेज, टाइपराइटर पश्रादि वस्तुपो में भी भ्रापसी सम्बन्ध होते हैं, परन्तु वे एक दूसरे से भिन्न नहीं होते इसलिए उन्हें सामाजिक सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता । व्यक्तियों के सम्बन्ध परिवार तथा परिवार भै बाहुर्‌ रहन वले प्रनैक लोगो से होते हैं, जिसवे' द्वारा प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से सम्बन्धित होता है। समाज इन्हीं सामाजिक सम्बन्धो का जाल है परन्तु स्वंसाघारण व्यक्ति समाज का भ्रय केवल व्यक्तिय के समूह्‌ से लगा ठेता है जै ब्रह्म समाज, प्रायं ममान श्रादिको मी समान कहते हैं, परन्तु समाजशास्त्र की हृष्टि से मका तात्पयं सामाजिक प्रन्त क्रिया से है । ला पियरे के भ्रनुस्तार “समाज मनुष्य के एक समूह ক भ्रन्त सम्बन्धा की एक जटिल व्यवस्था है !”” मक्सवेबर के भ्नुमार सामाजिक सम्बन्धों के अन्तगंत केवल शौर पूरा रूप से इस समावना का ही रुमावेश होता है कि किसी सार्थक बोघगम्प भाव में कोई सामाजिक क्रिया होगी ।* ह उपयुक्त विद्रानो के विचारों सेद्ध होतादै किमानव की श्रन्‌ क्रि समाज का मेरुदण्ड है। इसके भ्रभाव में वह निर्जीव वस्तुश्रा के समूह के अनुरूप ही रह जाता है। मानव की सदेव यह लालसा रही है कि बह भ्रपने अनुभवों को दूसरों तक पहुँचा दे श्रौर दूसरों के भ्नुभवों से लाभान्वित हो । इन्ही श्रनुभवों के श्रादान- प्रदान की प्रक्रिया में कथा का विकास हुआ और उसके धोताप्रो ने उसे विभिन्‍न भावरणा से समय-समय पर सुसज्जित किया तथा अपने नवीन श्रनुमवों को, घटनापो 1... 2০ [৮ 200 ৮৪৪৩-5901৩5 0, 2 2 উএয৩৮০ 2 006 05020 ০1 ছাঃ 80০02001510 १,1.11 1.9 ९




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