मोहन राकेश की संपूर्ण कहानियां | Mohan Rakesh Ki Sampurn Kahaniya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
494
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about राजपाल एण्ड सन्जू - Rajpal And Sanju
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मिस पाल: 17
महीनों से तुम मेरे यहां पहले ही मेहमान आए हो ? मैं तुम्हें आज कैसे जाने दे सकती
हूं ? ** तुम्हारे साय कुछ सामान-आमान भी है या ऐसे ही चले आए थे ?
मैंने उसे बताया कि मैं अपना सामान हिमाचल राज्य परिवहम के दफ्तर में छोड़
आया हूं और उससे कह भाया हूं कि दो घटे में मैं लोट आऊंगा ।
“मैं अभी पोस्टमास्टर से वहा टेलीफोन करा दूमी । कल तक तुम्हारा सामान
यहा ले आएंगे । तुम कम से कम एक सप्ताह यहां रहोगे। समभे ? मुझे पता होता कि
तुम मनाली में आए हुए हो तो मैं भी कुछ दिन के लिए वहां चली आती । आजकल तो
मैं यहा “खेर तुम पहले उधर तो आओ, नहीं भूख के मरे ही यहा से भाग जाओगे ।
मैं इस नई स्थिति के लिए तैयार नही था । उस सम्बन्ध मे वाद में बात करने
की सोचकर में उसके साथ रसोईघर मे चला गया । रसोईघर में कमरे जितनी अराजकता
नहीं थी, शायद इसलिए कि वहां सामान ही बहुत कम था! एक कपड़े की आराम कुर्सी
थी, जो लगभग खाली ही थी- उस पर सिफ॑ नमक का एक डिब्बा रखा हुआ था।
शायद मिस पाल उसपर बैठकर खाना बनाती थी । खाना बनाने का और सारा सामान
एक टूटी हुई मेज पर रखा था । कुर्सी पर रखा हुआ डिब्वा उस्तने जल्दी से उठाकर मेज
पर रख दिया और इस तरह मेरे बंठने के लिए जगह कर दी ।
फिर मिस पाल मे जल्दी-जल्दी स्टोव जलाया और सब्जी की पतीली उसपर रखे
दी । कलछी साफ नही थी, वह उसे साफ करने के लिए वाहर चली गई। लौटकर उसे
कलछी को पोछने के लिए कोई कपड़ा नही मिला । उसने अपनी कमीज से ही उसे पोछ
लिया भर सब्जी को हिंलाने लगी ।
“दो आदमियों का खाना है भी या दोनों को ही भूखे रहना पड़ेगा ?” मैंने
पूछा ।
खाना बहुत है,” मिस पाल भुककर पतीली मे देखती हुई बोली ।
“क्या-क्या है ?”
मिस्र पाल कलछी से पतीली में टटोलकर देखने लगी ।
बहुत कुछ है। आलू भी हैं, बैंगन भी हैं और शायद शायद बीच में एकाघ
टीडा भी है । यह सब्जी मैंने परमों बनाई थी ।””
''परसों ?” मैं ऐसे चौंक गया जैसे मेरा माथा सहसा किसी चीज़ से टकरा गया
हो । मिस पाल कलछी चलाती रही ।
“हर रोज़ तो नहीं बना पाती हु,” वह बोली । रोज बनाने लगूं तो बस खाना
बनाने की ही हो रहूं। और अमु **अ * अपने अकेली के लिए रोज बनाने का उत्साह
भी तो नही होता । कई वार तो मैं सप्ताह-भर का खाना एक साथ बना लेती हू और
फिर निश्चिन्त होकर खाती रहती हूं । कहो तो तुम्हारे लिए मैं अभी ताज़ा बना दूं ।”
“तो चपातियां भी कया परसों की ही बना रखी हैं?” में अनायास कुर्सी से उठ
खड़ा हुआ ।
“आओ, इघर जाकर देख लो, खा सकोगे या नही ।” वह कोने मे रखे हुए बेत
के स॒न्दूक के पास चली गई । में भी उसके पास पहुंच गया । मिस पाल ने सन्दूंक का
ढकमा उठा दिया । सन्दूक में पच्चीस-तीस खुश्क चपातिया पड़ी थी । सूखकर उन सबने
कई तरह को आकृतिया घारण कर ली थी । मैं सन्दरक के पास से आकर फिर कुर्सी पर
बैठ गया ।
“तुम्हारे लिए ताज्ञा चपातिया वना देती हूं,” मिस पाल एक अपराधी की तरह
देखती हुई वोली ॥ डी थी
User Reviews
No Reviews | Add Yours...