मोहन राकेश की संपूर्ण कहानियां | Mohan Rakesh Ki Sampurn Kahaniya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मिस पाल: 17 महीनों से तुम मेरे यहां पहले ही मेहमान आए हो ? मैं तुम्हें आज कैसे जाने दे सकती हूं ? ** तुम्हारे साय कुछ सामान-आमान भी है या ऐसे ही चले आए थे ? मैंने उसे बताया कि मैं अपना सामान हिमाचल राज्य परिवहम के दफ्तर में छोड़ आया हूं और उससे कह भाया हूं कि दो घटे में मैं लोट आऊंगा । “मैं अभी पोस्टमास्टर से वहा टेलीफोन करा दूमी । कल तक तुम्हारा सामान यहा ले आएंगे । तुम कम से कम एक सप्ताह यहां रहोगे। समभे ? मुझे पता होता कि तुम मनाली में आए हुए हो तो मैं भी कुछ दिन के लिए वहां चली आती । आजकल तो मैं यहा “खेर तुम पहले उधर तो आओ, नहीं भूख के मरे ही यहा से भाग जाओगे । मैं इस नई स्थिति के लिए तैयार नही था । उस सम्बन्ध मे वाद में बात करने की सोचकर में उसके साथ रसोईघर मे चला गया । रसोईघर में कमरे जितनी अराजकता नहीं थी, शायद इसलिए कि वहां सामान ही बहुत कम था! एक कपड़े की आराम कुर्सी थी, जो लगभग खाली ही थी- उस पर सिफ॑ नमक का एक डिब्बा रखा हुआ था। शायद मिस पाल उसपर बैठकर खाना बनाती थी । खाना बनाने का और सारा सामान एक टूटी हुई मेज पर रखा था । कुर्सी पर रखा हुआ डिब्वा उस्तने जल्दी से उठाकर मेज पर रख दिया और इस तरह मेरे बंठने के लिए जगह कर दी । फिर मिस पाल मे जल्दी-जल्दी स्टोव जलाया और सब्जी की पतीली उसपर रखे दी । कलछी साफ नही थी, वह उसे साफ करने के लिए वाहर चली गई। लौटकर उसे कलछी को पोछने के लिए कोई कपड़ा नही मिला । उसने अपनी कमीज से ही उसे पोछ लिया भर सब्जी को हिंलाने लगी । “दो आदमियों का खाना है भी या दोनों को ही भूखे रहना पड़ेगा ?” मैंने पूछा । खाना बहुत है,” मिस पाल भुककर पतीली मे देखती हुई बोली । “क्या-क्या है ?” मिस्र पाल कलछी से पतीली में टटोलकर देखने लगी । बहुत कुछ है। आलू भी हैं, बैंगन भी हैं और शायद शायद बीच में एकाघ टीडा भी है । यह सब्जी मैंने परमों बनाई थी ।”” ''परसों ?” मैं ऐसे चौंक गया जैसे मेरा माथा सहसा किसी चीज़ से टकरा गया हो । मिस पाल कलछी चलाती रही । “हर रोज़ तो नहीं बना पाती हु,” वह बोली । रोज बनाने लगूं तो बस खाना बनाने की ही हो रहूं। और अमु **अ * अपने अकेली के लिए रोज बनाने का उत्साह भी तो नही होता । कई वार तो मैं सप्ताह-भर का खाना एक साथ बना लेती हू और फिर निश्चिन्त होकर खाती रहती हूं । कहो तो तुम्हारे लिए मैं अभी ताज़ा बना दूं ।” “तो चपातियां भी कया परसों की ही बना रखी हैं?” में अनायास कुर्सी से उठ खड़ा हुआ । “आओ, इघर जाकर देख लो, खा सकोगे या नही ।” वह कोने मे रखे हुए बेत के स॒न्दूक के पास चली गई । में भी उसके पास पहुंच गया । मिस पाल ने सन्दूंक का ढकमा उठा दिया । सन्दूक में पच्चीस-तीस खुश्क चपातिया पड़ी थी । सूखकर उन सबने कई तरह को आकृतिया घारण कर ली थी । मैं सन्दरक के पास से आकर फिर कुर्सी पर बैठ गया । “तुम्हारे लिए ताज्ञा चपातिया वना देती हूं,” मिस पाल एक अपराधी की तरह देखती हुई वोली ॥ डी थी




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