उद्योगी पुरुष | Audhyogik Purush

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साधन श्रौर सिद्धि । १५ ठुम ज्ञानी हो, तुम सरखती कै साधक दो, श्रतप्व तुम्हे सुत्न का लालच क्यों होना चाहिये ? यदि तुम ज्ञान के निर्मल आनन्द को अ्रपेत्ता खंसार की प्रसिद्धि प्राप्त करने के अधिक इच्छक हो, अपनी आराध्यशक्ति को प्रसन्नतापूर्ण दृष्ठटि को अ्रपेक्ता, भोगविल्लास के आनन्द के लिए अधिक अधीर हो तो तुम्हे फिर साधन किस लिए करना चाहिये ? तुम प्रेमिक हो, तुम भीतिक वैभव के लिए लालची हो, इस वरणिक-ब्यवहार पूर्ण संसार में लोग स्वप्त मं भी स्वार्थ के सिद्रा ओर कुछ नहीं देखते किन्तु तुम ज्ञान के श्रगम्य झोर अज्षेय धन फे लिए सर्वेदा तृषित रहते हो, इस दशा में तुम्हे धन, मान, ओर हानिलास को गिनती क्यों करनी चाहिये ? मान लो तुम अपने देश के सेवक, अपनी जाति के बन्ध हो तो तुम प्रत्यक कार्य्य का परिणाम सोचने के पहले अपने परिणाम का विचार क्यों करते द्वो ? देशहित के बत में बती होकर प्रत्येक त्षण अपने हित के লব में आगे क्यों जा पड़ते हो ? इस प्रकार तुम अपने भाष्या में स्वतंत्रता का पवि नाम लेकर, धीरे धीरे परतन्बता का विषमय फल उपजाते हो । तुम इसर्य को स्वगं की शोभा दिखाने के लिए स्वयं नरक मे जा डवो । वम श्रग्नि-कुरुड मे श्रपने शापक भस्म कर दो अथवा न करो यह दुसरी बात दै । पर, यदि तुम ज्ञान चाहते हो, प्रेम चाहते हो, श्रथवां श्रपनी जाति की उन्नति चाहते हो तो पहिले अपने आपको बलिदान कर अपने पास जो कुछ हो उसे दूर फक दो | साधक की तरह क्रस” की लकड़ो पर अपने +सतलब यह कि जिस तरह हंसामसोह ने मनुष्य जाति के मगल




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