योगवासिष्ठ | Yogvasishth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बसैकृपरतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रङृरण ६. ( ८९५९ ) एकदी रै, तैसे ब्रह्म अर्‌ जगत्‌ नाममा दो है, वस्पुते एकी है, जैसे जलविषे तरंग अरु बदबुदे जलरुप हें, तेसे ब्रह्मविषे जगत्‌ ब्रह्महूप है, चेतन आत्माहपी मिर्च है, अरु जगतहूपी तीक्ष्णताहे ॥ हे रामजी ! ऐसा ब्रह्म तू है, अरु जो तू कहे में चित्त नहीं, तौ कछ माना जाता है, क्यों, जो तू कहे, में जड हों, तो तू आकाशवत्‌ हुआ, तेरेविषे कलनाका उल्लेख कैसे होवे, अरु जो चेतन है तो शोक किसका करता है, अर जो चिन्मय है तो निरायास आदि अंतते रहित हुआ, सब तूही है, अपने स्वरूपको स्मरण करो, तब शांतिको प्राप्त होवोगे जो सब भाव- विषे स्थित है, अर सषको उदय करनेहारा है, सो तुरी है, शांतरूप है, तू चैतन्यं बह्मरूप है ॥ हे रामजी ! ऐसी जो चेतनहूपी शिला है, तिसके उद्रंविषे वासनारुपी फुरणा कहां होवे ! वह तो महाघनरूप है ॥ हे रामजी ! जो तू है, सो सोई है, उस अरु तेरेविषे भेद कछु नहीं, सोई सत्‌ अरु असतहूप होकारे भासता हैं, सब पदार्थ जिसके अंतर दै, अर नाना जिसविषे कष नरी, अरं त्वं अन्न तज्ज्ञ जिसविषे कलना कछ नहीं, ऐपा जो सत्यरूप चिद्धन आत्मा है, तिसको नम- स्कार है ॥ ह रामजी ! तेरी जय होवे, केसा है तरू आदि अङ्‌ अन्तते रहित विशार है, अरु शिरूकिं अंतवैत्‌ बिद्धनस्वहप रै, आकाशवत्‌ निमल है, जेसे समुद्रविषे तरंग हैं, तेसे तेरेविषे जगत्‌ है, सो लीलामात्र है, तू अपने घनस्वरूपविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निवो- णप्रकरणे विश्वामहढीकरणं नाम द्वितीयः सर्गः ॥ २ ॥ ततीयः सगः. ब्रहमकप्रतिपादनम्‌। वसिष्ठ उवाच ॥ ह निःपाप रामजी ! निष चेतनहूपी समुद्रविषे जगतरूपी तरंग फुरते हें, अरू लीन हो जाते हैं; ऐसा अनंत आत्मा है सो तू भवकी भावनाते युक्त है, अङ्‌ भाव अभावत्‌ रहित है, ऐसा जो चिदात्मा तेरा स्वरूप है, सो सवे जगत्‌ वहीरूय है, तब वासनादिक




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