मन्थन | Manthan 1953

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मानव का सत्य ७ एक प्रकार से “न! कार की साधना की है। उन्होंने 'में अपने को कुचत्न दूं गा! ऐसा संकहप ठानकर कुचलने पर इतता जोर दिया है कि वे भूत गये हैं कि इसमें 'मे” पर सी झ्रावश्यक रूप में जोर पढ़ता ह । भ्म कुचलकर ही रहूँगा, यह ठान-ठानकर कुचलने में जो जोर लगाता है, उसका वह जोर असल्न में / अहं' के सिंचन में जाता श्रौर वहीं से গাজা ই। ছু प्रकार, तपस्या द्वारा अपने को कुचत्षने में आग्रही होकर भी उश्टे भ्रपने सूचम श्रं को अर्यात्‌ भै को, प्ींचा और पोषा जाता है । जो साधना दुनिया ते मुँह मोडकर उस दुनिया की उपेक्षा भर विमुखता पर अवल्नम्बित हैं वह अन्त में मूलतः अहं सेवन ही छा एक स्प हैं। जो विराट, जो महामहिम, सव घटनाओं में घटित हो रहा है उपक्ी ओर से विमुखता धारण करने से श्रात्मेक्य नदी प्राप्त होगा । चीज़ें बदल रही हैं ओर उनकी और से निस्संवेदन, उनको भर से नितान्त तटस्थ, नितान्त श्रसंकग्न श्रौर श्रप्रमावित रहने शी साधनां आरम्भ से ही निष्फल है। व्यक्ति अपने-आप में पूर्ण नहीं है, तब सम्पूर्ण का प्रभाव उप्त पर क्‍यों न होगा ! प्रभाव न होने देने का हठ रखना अपने को अपूर्ण रखने का हट करने-जेसा है, जोंकि असम्भव है। आदमो अपूर्ण रहने के लिए नहीं है, उसे पूर्णता की ओर बढ़ते ही रहना है । इसलिए जगदूगति से उपेक्षा-गील नहीं हुआ जा सकेगा । उससे श्रप्रभावित भी नहीं हुआ जा सकेगा | यद्द तो पहले देख चुके कि अपने को स्वीकार करके उस जगदुगति से इन्कार नहीं किया जा सकता | इसी भाँति यह भी स्पष्ट हुआ क्लि उधर से निगाह हटाकर केवल अपने ऊपर उसे केन्द्रित करके स्वयं अप्रभावित बने रहने में भी सिद्धि नहीं ह। तब यही मार्ग है ( लाचारी का नहीं, मोक्ष का ) कि हम घटनाओं को केवल स्वीकार ही न करें, प्रत्युत उन्हे स्वयं घटित करें । क्या वास्तव के साथ ऐक्य पाना ही हमारा लक्ष्य और वही हमारी सिद्धि नहीं ই?




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