गीतार्थचन्द्रिका | Geetatarthchandrika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
654
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about गोपालचन्द्र चक्रवर्ती - Gopalchandra Chakravarti
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ११.)
सकटी। प्रोक्ि श्रज्जुन तो भरहन्ता ममताके धशीभूत होकर
गाएडीबको छोड़ ही चुका था। उसी कम त्याग प्रकारान्तर-
से प्रोत्साहन भगवान् केसे दै सकते थे। जिस अज्ञुनने--
निवांएमपि पयेऽहमन्तरायं जयभरियः'
ऐसा फचिके छुक़्से कहाकर किसी समय विजयश्री
लामफे सम्मुख निर्धाएमोत्षको भी तुच्छ किया था, उसके
प्रति नौरे मोज्षका उपदेश करना अनधिकार चर्चा मात्र है।
इस कारण ऐसा भी सिद्धान्त निर्णय करना युक्तियुक्त नी
प्रतीत होता। तृतीयतः सब कुछ दोडक्षर देवपिं नारदकी
तरह घौणावादन करते हुए फेघल हरिनाम क्ौत्तनके लिये
भी राजज्युत ज्न्रियवीर शज् ुनको गीताकां उपदेश नहीं
शोभा दैता है। यदि ऐसा हेत নী অন্ত আন
धाद् शर्ते तस्माद् युध्यख भारत' र फेय तस्माखम्
एत्यादि युद्धप्रयोचफ वाक्य गीताम नटी होते । शतः
सिद्धान्त हुआ कि फेचत शान, फेल भक्ति यां कपल कर्म
विशननके सिखामैके लिये श्रीभगवानने अजुनको गीता नहीं
फटी धी । गौतोपवेशमे भ्र्ठुन निमित्तमात्र ही थे, क्मोपासना
ঘানজামজহথ द्वारा निजिल संसारका परमकल्याणए साधन
करना भोर उसी बौचमें श्रज्ञुनक द्वारा युद्ध फराकर धर्मका
विजय करा देना यही गितोपदेशक उद्देश्य था ।
अब गौताके इसी प्रतिपाध विपयपर पविशेषतया विचार
किया जाता है | पहिले हो कद्दा गया है कि, समस्त उपनिषद्.
User Reviews
No Reviews | Add Yours...