गीतार्थचन्द्रिका | Geetatarthchandrika

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Geetatarthchandrika by गोपालचन्द्र चक्रवर्ती - Gopalchandra Chakravarti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११.) सकटी। प्रोक्ि श्रज्जुन तो भरहन्ता ममताके धशीभूत होकर गाएडीबको छोड़ ही चुका था। उसी कम त्याग प्रकारान्तर- से प्रोत्साहन भगवान्‌ केसे दै सकते थे। जिस अज्ञुनने-- निवांएमपि पयेऽहमन्तरायं जयभरियः' ऐसा फचिके छुक़्से कहाकर किसी समय विजयश्री लामफे सम्मुख निर्धाएमोत्षको भी तुच्छ किया था, उसके प्रति नौरे मोज्षका उपदेश करना अनधिकार चर्चा मात्र है। इस कारण ऐसा भी सिद्धान्त निर्णय करना युक्तियुक्त नी प्रतीत होता। तृतीयतः सब कुछ दोडक्षर देवपिं नारदकी तरह घौणावादन करते हुए फेघल हरिनाम क्ौत्तनके लिये भी राजज्युत ज्न्रियवीर शज् ुनको गीताकां उपदेश नहीं शोभा दैता है। यदि ऐसा हेत নী অন্ত আন धाद्‌ शर्ते तस्माद्‌ युध्यख भारत' र फेय तस्माखम्‌ एत्यादि युद्धप्रयोचफ वाक्य गीताम नटी होते । शतः सिद्धान्त हुआ कि फेचत शान, फेल भक्ति यां कपल कर्म विशननके सिखामैके लिये श्रीभगवानने अजुनको गीता नहीं फटी धी । गौतोपवेशमे भ्र्ठुन निमित्तमात्र ही थे, क्मोपासना ঘানজামজহথ द्वारा निजिल संसारका परमकल्याणए साधन करना भोर उसी बौचमें श्रज्ञुनक द्वारा युद्ध फराकर धर्मका विजय करा देना यही गितोपदेशक उद्देश्य था । अब गौताके इसी प्रतिपाध विपयपर पविशेषतया विचार किया जाता है | पहिले हो कद्दा गया है कि, समस्त उपनिषद्‌.




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