युवकों की गीता | Yuvkon Ki Geeta

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Yuvkon Ki Geeta by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) औ जो जितना ही शानपूर्ण द, वह उतना ह श्रेयस्कर दै | उससे उदश की पिद्वि उतनी शीघरतासे होत्री है| इन समी बातों पर बालकों का ध्यान आकर्षित किया जा सकता है| विशेषकर इन दोनों श्लोकों पर ध्यान देना अच्छा होगा-.. श्रेयान्द्रव्यमयाधज्ञाज्यानयज्ञ: परंतप, सर्वे कर्माखिलं पार्थ क्वाने परिसमाप्यते | ३३ ग्रथ --हे अजुंन ! सांघारिक वस्तुओं से होने वाले यज्ञ से घान- रूपी यज्ञ सब प्रकार श्रेष्ठ है, क्योंकि यह निष्काम यज्ञ है, और हे पायं | सम्पूर्ण कर्मो' का श्ञान में अन्तर्भाव हो जाता है। शान ही स्वं कर्मो कौ पराकराष्ठा है । श्रि चेदसि पपेभ्यः सवेभ्यः पापतमः, सवै ज्ञानपवेनेत्र दजिन॑संतरिष्यसि | ३६ श्रथ यदित सव पा यों से भी श्रधिक पाप करने वाला है तो भी शानरूपी नाव के द्वारा सम्पूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तैर जायगा। पाँचवाँ अध्याय पाँचवें अ्रध्याय के अनेक श्लोक बालकों के लिए अत्यन्त उप- योगी ईं। दूसरे से लेकर छुठनें श्लोक तक में प्रवृत्ति तथा निदृत्ति आर्गो' का सापेक्षिक वर्णन किया गया है| इनमें जो वतिं कही गई हैं, वे अत्यन्त महत्त्व की हैं ) उन्हें बढ़ी सावधानी से पढ़ना और




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