दैवी संपद | Daivi Sampad

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Daivi Sampad by रामगोपाल मोहता - Ramgopal Mohta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- दैवी सम्पद्‌ च एकत्ता सत्‌ अतः मोक्ष है और अनेकता असत्‌ अतः वन्धन है तात्पर्य यह है कि अनेक मं जो एक है अर्थात्‌ नानात्व मे जो एकत्व ड वह सत्‌ है ओर उसे किसी प्रकार का बन्धन नहीं है भर पथकता अससत्‌ है ओर इखीसे सद बन्धन होते रहै । सारांश यह कि एकता ही मोक्ष नौर एथकता ही वन्धन है । जहौ एक से दो शोत ই वहीं पराधीनता अथवा वन्धन को अवकाश रहता है, परन्तु जहाँ एक के सिचाय अन्य कोई पदार्थ है ही नहीं, वहाँ कौन किसके अधीन रहे और कौन किसको बाँघे । चेदान्त कहता है कि वास्तव में एक के सिवाय दूसरा कुछ है नहीं ! বাবু में जो इतनी अनेकता प्रतीत होती है चह एक ही जात्मा के अनेक नास और अनेक रूपों का बनाव है; उससे मिन्न कुछ नहीं है। और इस লাল -रूपात्मक जगत्‌ के जो अनन्त इ्य हैं वे प्रति क्षण बदलते रहते हैं; इस- 'लिए वे सब असत्‌ हैं; क्योंकि जो पदार्थ स्थायी नहीं रहता वह सतत्‌ नहीं हो सकता--उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता । जिस तरह कोई, व्यक्ति अपनी बात पर स्थिर चह्दी रहता, क्षण-क्षण में पलटता रहता हैचह ` झूठा कहा जाता है; उसकी बात पर कोई विश्वास नहीं करता--यदि कोई उसे सच्चा मान कर विश्वास करे तो धोखा खाता है--इसी तरह प्रतिक्षण बदलने धाली जगत्‌ की अनेकृता फो जो सत्‌ मानकर संसार के व्यवहार करते हैं वे धोखा खाते हैं, अपने लिए वन्धन उतपन्न करते हँ ओरं दुः उठाते हैं । परन्तु जगत्‌ का असलीं तत्त जो पुकुत्व भाव है वह अपरि- चततवशील होने से सदः इकसार वना रहता है; इसलिए वह सद्‌ है और इस एकता रूपी सत्‌ के आधार पर व्यवहार करने वलि को को. बन्धन नहीं होता, किन्तु वषं सदा स्ववन्व एवं सक्छ स्वामी ्ोताहै। केव आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं किन्तु आधिदेविक और आधिभौतिक दृष्टि से भी पपुकता सच्ची.और अनेकता क्री है; क्योकि एक ही आतमा करी जनन्त दैवी




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