श्रीसमाधिशतक टीका | Shrisamadhishatak Teeka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ई दस तरह सुख भी आन्मा का स्वभाव है | यदि ऐसा न होता तो परवात्मा म शरीरादि न ग्टने भी अनन्तयृख सरह कर्द सकते । जब आस्पा अपने स्वरूप कः सच्चे গাল ক লাখ হলনা গালি বল कि उपयोग को आत्मा से बाहर न जानें दे तव इसे स्वय यव का अजुभव आरा जायगा । जहां तान और शांति होती है बहां सुख भी अवश्य पाया जायगा | यह बात आत्मानुभवी भत्त भकार जानते है । कर संसार मे सुख इन्द्रियननित है या अतीन्द्रियनरनितन हे । परोपकारी पुरुषों को अपने स्व्राथ बिना दूसरे का उपकार करते हुए जो सुख्व मालूम होता हैँ बह सुग्व मोह के घढाव से प्रमठ दाता ह--बहा यताो्द्रय सुम का प्चन्द हैं| थोई दिन आत्मा के अभ्यास से चेतना, शांति आर शुत आत्मा में ही है ऐसा अच्छी तरह अलुभव होजाता है । आत्मा या पुदल सै ही द्रव्यो मे गुण्‌ इतने ईह छि उनका ज्ञान सिवाय सर्वेत क दृसयंकोनदी दी सक्ता । जो अत्पन्नानी दवे पार्था के थोडे गुण जान कर एकः ফন দ্দা दुसरे से भिन्न जान सक्ते टं ! पुद्धल, धमै, अधर्म, आकाश, काल से यात्मा क भिन्न पदिचानने क लिये यह जानना जरूरी द॑ कि यदह आत्मा चअतन्य-स्व॒रूप, शांतिमय श्रथात्‌ क्रोधादि विक्रार रदित, आनन्दमयी अम्ृर्तीक, अपने असंग्ल्यात प्रदेशों को रखते हुए भी शरीर में शरीराकार हू। परमात्मा सिद्ध भगवान्‌ जसे निमल निरेजन निर्विकार हैं ऐसा ही दमार्‌ शरीर म विराजमान श्रान्मा हं । जैसा कि ओदेवसेन श्राचायने तच्वसार में कहा हँ--- गाधा-जस्स ण कोद्य भाणो मायालोदहो च सस्स लेसलाच्रो + “ जाइजरामरणं विय णखिरेजणो सो अहं भणखिओ॥£ ६॥ णत्धिकला संठाणं मसग्गण, गुणठाण जीवठाणाईं | णइ लद्धडि बंधठाणा णोदय ठाणाइया केड ॥ २० फास रस रूव गंधा सदादीया य जस्ल णात्थि पुणो | सुद्धों चयण भावो णिरंजणो सो अहं भणिआओ॥२१९७ # न्‌




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