समता - दर्शन भाग - १ | Samta Darshan Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
310
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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मनुष्य को बाहर-ही-बाहर भटकते रहने के लिये विवश कर दिया है ।
आध्यात्मिक दृष्टि से यह भयावह स्थिति है ।
मूल से भूल को पकड़े :
आदि य॒ग मे प्रधानतया इस चेतना के दो परिणाम आत्मा की पर्यायों
की हृष्टि से सामने आये । एक पशु जगत् का तो दूसरा मानव जगत् का। पशु
जगत् अभ्रब भी उसी पाशविक दशा मे है जिस दशा मे आदि युग मेथा, लेकिन
मानव जगत् ने कई क्षेत्रों मे उन्नति की है। आकाश के तारो को छू लेने के
उसके प्रयास उसकी चेतना शक्ति के विकास के परिणाम रूप मे देखे जा सकते
है, किन्तु उसकी ऐसी चेतना शक्ति, पर-तत्त्व के सहारे चल रही है-स्वाश्रयी
या स्वतत्न नही है | चेतना शक्ति के इस प्रकार के विकास ने अपनी सा्वभौस
सत्ता को जड तत्त्वों के अधीन गिरवी रख दिया है। अधिकाश मानव-मस्तिष्क
जड तत्त्वों की अधीनता मे, उनकी सत्ता मे अपने आपको आरोपित कर के चल
रहे हैं और यही तथ्य है जिससे समस्याएँ दिन-प्रति-दिन जटिलतर बनती जा
रही है ।
यद्यपि अलग-अलग स्थलो पर समता भाव के साहश्य समाजवाद, साम्य-
वाद आदि वादो के लुभावने नारे भी सामने आये है जो अधिकतम जनता के
अधिकतम सुख को प्रेरित करने वाले बताये जाते है, किन्तु इन वादो के
प्रचारको-प्रसारको ने यदि आत्मावलोकन नही किया, श्रपनी भीतरी ग्रथियो को
नहीं समझा तथा उन ग्रथियो को समता दर्शन की दृष्टि से खोलने की चेष्टा
नही की तो क्या ये वाद सफल हो सकते है ” लेकिन जो कुछ हो रहा है, बाहर-
ही-बाहर हो रहा है- भीतर की खोज नही है ।
जहाँ तक मै सोचता हूं, मेरी दृष्टि मे ऐसे ये सारे प्रयत्न मूल में भूल के
साथ है । इस भूल को नही पकडेगे और नही सुधारेगे तो सिर्फ टहनियो व पत्तो
को सवारने से पेड हरा भरा नही रह सकेगा ।
यह मूल की भूल क्या है ” यह लक्ष्य की अआआन्ति है। आज अधिकाश
लोगो ने जो मुख्य लक्ष्य वना रखा है--वह यह है कि सत्ता और सम्पत्ति पर
हमारा आधिपत्य हो । ममता भरी यह बहुत बडी महत्त्वाकाक्षा उनके मन में
फलती-फूलती हुई दिखाई देती है । सत्ता और सम्पत्ति ये बाहरी तत्त्व हैं और
इनको चेतन अपने अन्दर लपेटने को उतावला हो रहा है । यह प्रयत्न व्यक्ति के
स्तर से लेकर विश्व के स्तर तक चल रहा है। जब तक यह आत्म-विरोबी
लक्ष्य बना रहता है, समाजवाद या समतावाद कंसे ्रा सकता है? सत्ता और
सम्पत्ति के स्थान पर चैतन्य एव कत्तव्य का जव तक प्रतिस्थापन नही होगा
तब तक मानव जाति मे समता-दर्शन के स्वप्न अधूरे ही रहेगे ।
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