शेष स्मृतियाँ | Shesh Smritiyan

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डॉ. रघुवीर सिंह - Dr Raghuveer Singh

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रामचंद्र शुक्ल - Ramchandra Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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শপ १ ३२ ~ लीन करने बाली होती है, सह्यो से न छिपा ह, न छ्िपाते वनता है । मनृष्य की अत्तःप्रकृति पर इसका प्रवरू प्रभाव स्पष्ट है । हृदय रखने वाले इसका प्रभाव, इसकी सजीवता अस्वीकृत वही कर सकते । इस प्रभाव का, इस सजीवता का, मूल हूँ सत्य । सत्य से अनुप्राणित होने के कारण ही कल्पना स्मृति और प्रत्यभ्षिज्ञान का सा सजीव रूप प्राप्त करती हैं। कल्पना के इस स्वरूप की सत्यमूलक सजीवता का अनुभव करके ही सस्क्ृत के पुराने कवि अपने सहाकाव्य और नाटक किसी इतिहास-पुराण के वृत्त क्वा आधार ले कर ही रचा करते थे । सत्य से यहां अभिप्राय केदल वस्तुतः घटित वृत्त ही नहीं निश्व- यात्मकता से प्रतीत वृत्त भी है । जो वात इतिहासो मे प्रसिद्धं चली आ रही है वह यदि प्रमाणोसेपुष्टभीनहोतो भी खोगो के निर्वास फे घल पर उक्त प्रकार की स्मृति-स्वरूपा कल्पना का आघार हो जाती हैँ। आवश्यक होता है इस बात का पूर्ण विश्वास कि इस प्रकार फो घटना इस स्य पर हई थी । यदि ऐसा विश्वास कुछ विरुद्ध भ्रमाण उपस्थित होने पर विचलित हो जायगा तो इस रूप की कल्पना न जगेगी । दूसरी वात ध्यान देने की यह है कि आप्त वचन्‌ या इतिहास के संकेत पर चलने वाली मूत्त सावना भी मनुमान का सहारा लेती है। कभी कभी तो शुद्ध अनुमिति ही मूत्ते भावना का परिचालन करती हैं । यदि किसी अपरिचित्त प्रदेश में भी किसी वित्तृत खंडहर पर हम जा बैठें तो इस अनुमान के वल पर ही कि यहां कभी अच्छी बस्ती थी, हम प्रत्यभिज्ञान के ढंग पर इस प्रकार की कल्पना में प्रवृत्त हो जाते हूं कि 'यह वही स्थल है जहाँ कभी पुराने मित्रों की मंडली जमती थी, रमणियों का हास-विलास होता या, चालते का प्रौडा-फलरव सुनाई पड़ता था इत्यादि । कहने फी आद- श्यकता नहीं कि भत्यनिज्ञान-ल्वरूपा यह कोरी अनुमानाशित कल्पना भी सत्यमूछ होती है। वत्तंसान समाज का चित्र सामने लाने वाले उपन्यात्त भी अनुमानाश्षित होने फे कारण सत्यमूल होते हे ।




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