वातव्याधि चिकित्सा | Vat Vyadhi Chikitsa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हा ल दि जा सिर ट्ररटा रस न पिटपिय देर मन पम्प प्राण जीव के साथ रहता है और जब आत्मा मुक्त हो जाता है तब उसका प्राण प्राण में मिल जाता है-इसका वर्णन वेद में है ।' वेद में श्वास निःध्वास कीं प्रक्रिया का वर्णन वड़े ही सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया गया है । जिसमें. वायु से घ्राथना की गई है कि “वायु ! तू रक्त में जो सल है उसे दाहर निकाल क्योंकि तू सब. रोगों वग भेषज है, तू देवों का दूत होकर विचरता है”-ा द्वाचिमौ वातौ वात सा सिंन्धोरा परावत: । दक्ष ते अन्य भा वायु परान्त्यों वातु यद्रप: ॥। हा वात वाहि भेपजं बविवात वाहि यद्‌ू रप: । रवं हि निषा भेषजणों देवानां दत ईयसे 1 “ऋग्वेद १८1१३७।२-३, अथवें. ४. ९५९३.२-३ चिनाशशील पिंड में 'जीवात्मा आयुप्सान होकर कैसे ध्वस्थ रह सकता है इस चिन्तन धारा से ही पघभु ने मायु- 4द.की रचना सी । आयुर्वेद का माधार चिदोष सिद्धान्त है जिसका वर्णन वेदों में उपलब्ध होता/ है । ऋग्वेद १1३४1 ६ सें “'सूनवे न्िघातु कस चहल शुभरपती” के भाप्य में सायणाचार्य लिखते हैं-“'हे शुभस्पती हे शोभनस्य जगत: पालकौ भध्विनीकुमा री युवां. निधालुप्रणमनं वातपित्त बले- प्मशा म्‌ प्रशमनें शर्म सुखेन सम्यक्‌ वहतम कुरुयमू 117” इसीं प्रकार क्ग्वेद १!८५1१९४ में वर्णित “लिधघातुचि” की भ्याख्यग दयानन्द सरस्वतीं ने भी इसी प्रकार से की है- ''विघातुनि, चयोवातपित्तकफा: येपु शरीरेषु तानि शरीराणि”” । रद न /इसनयय्ट्ण दर हा अप दास: > ्नडवपपय ापरागडयुण रत धन्य हे री एम है जिन पइय जग रण टच धथ शा शधाास्णटअतकाापव ब्यखम्ययन (नव 1 रत टेनस्लण इतना न स्ज्ण् 1. जन तप या दाद हब जमा डे पनीससजपज रमध का रफिस्नीकन्टट्णड वअना कि मर्हाषि 'सुश्रुतत के वायु: पालयति प्रजा:” का इस मन्त्र में वर्णन किंया गया है-- « ओइमू ण्तघारं चायुमर्क स्वधिदं छृचक्षसस्ते अभि- चक्षसे रयिम्‌ । ये पृणन्ति प्र दक्षिणां सप्त मातरमू 1 -मथवें १८1४२ दीघे 'जीवन के .लिए मशूतमय भौपषध भंडार से मश घाप्ति की प्ाधना वायु से. ही की गई है , क्योंकि दायु ही “'विश्वभ्रेषज”” किया ' दिनदूत”” के नाम से न्यवह्त किया गया है. यददो बात ने... गृंहेप्मृतस्यनिधिहितः । .' ततो नो देह. जीवसे ।।. --अग्वेद १०1१८६।३ यच्छस्ति सवंदा, ते' दुद्धते - ऋतुसंन्घियों यें व्यापकरूप से फैलने वाली महामा- रियों को रोकने के लिए “'मंपज्य यज्ञ” किये जाते थे जिनका वर्णन वेदों में उपलब्ध होता है । इनसे वातावरण _ सुरशिगन्धमय बनने से रोग दूर हो 1 भ्रयवान चरक से भी इस कार्ये को. वेदविह्नित कहा है तथा इस ओर इंगित कर वायु की महत्ता प्रदर्शित की है-- य या प्रयुक्तता चेष्ट्या राजयक्ष्मा पुराजित: 1. तां वेदविद्दितािमिष्टिमू मारोग्यार्थी प्रयोजयेद् 1।' ' ही _ “नवद्य गोपीनाथ पारीक “गोॉपेश' शिव ०. चिशेष सम्पादक-''वातब्याघि चिकित्सा” ' 'पो० पचार (सीकर) राज ० ज वेदों में वायु वर्णन -चरक चिं० र।परघ्ट *.-




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