बिहारी - बोधिनी | Bihari - Bodhini
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
360
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ब्रा
थम शतक । ३
प्र
कार ২... ग
केलि - निकुझो. के रास्तों की पग पश पृथ्वी प्रयाग के समान
पुर्यदायिनी हो. जीती है--झथवा जिवेणीवत् हो जाती है ।
[विशेष]---भश्री कृष्ण ओर राधिका जी हे चरणों के प्रभाव
से पृथ्वी का पवित्र होना असम्भव नही |
चरण की नखप्रसा स सफेद, तलचो कौ आमा से लाल
ओर कृष्ण के चरणौ के प्रष्ठ भाग से श्याम कांति कीश्रामा
पड़ने से गंगा, खरस्वती श्चौर यसुना (अर्थात् त्रिवेणी) का
होना सम्भवित है ' यथाः-तेर जहां ही जहा बह वाल तहां
लां ताल मे होत त्रिवेणी ( पद्माकर.)
५ „= अल कार--१ काञ्यलिग । २--उरलास । २-तदुगुण <
४ दो०-सघन कुंज छाया सुखद सीतल मन्द् समीर ।
4 पन है जात अजों बहे वा जघुना के तीर ॥५॥ 7
शब्दार्थ--प्रन्द = धीरे धीरे वहने बाली 1 समीर = हवा ।
भावां--खरल ही है।
' ' अलफार--स्मरण ( कछु लखि, कछु झुनि, सोचि कछु
सुधि आचे कछु खास ) । | है
दो ०-सख्ि सोहति गोपाल के' उर शुजन की माल | “6
वाहर छसति पना पिये दावानल की ज्वाल ॥६॥
शब्दार्थ-गुंजा-घुंचुची । ज्यवाल-लपट |
भातर्थ--हे सखी देखो, गोंपाल के हृदय पर घुंघुचियों
की माला ऐसी शोभा देती है, मानों कृष्ण ने जो दाधानल
पी लिया है उसी की ज्वाला बाहर दिग्वलाई पड़ रही है!
~ अलंशर-डक्तविषयावस्तूत्पेत्षा । े
१० दो०-जागा जहाँ ठाढो छख्यो स्याम सुभग-सिरमोर | ०
उनहूं विन छिन गहि रहत दगनि अजहे बह ठोर॥णा।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...