बिहारी - बोधिनी | Bihari - Bodhini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ब्रा थम शतक । ३ प्र कार ২... ग केलि - निकुझो. के रास्तों की पग पश पृथ्वी प्रयाग के समान पुर्यदायिनी हो. जीती है--झथवा जिवेणीवत्‌ हो जाती है । [विशेष]---भश्री कृष्ण ओर राधिका जी हे चरणों के प्रभाव से पृथ्वी का पवित्र होना असम्भव नही | चरण की नखप्रसा स सफेद, तलचो कौ आमा से लाल ओर कृष्ण के चरणौ के प्रष्ठ भाग से श्याम कांति कीश्रामा पड़ने से गंगा, खरस्वती श्चौर यसुना (अर्थात्‌ त्रिवेणी) का होना सम्भवित है ' यथाः-तेर जहां ही जहा बह वाल तहां लां ताल मे होत त्रिवेणी ( पद्माकर.) ५ „= अल कार--१ काञ्यलिग । २--उरलास । २-तदुगुण < ४ दो०-सघन कुंज छाया सुखद सीतल मन्द्‌ समीर । 4 पन है जात अजों बहे वा जघुना के तीर ॥५॥ 7 शब्दार्थ--प्रन्द = धीरे धीरे वहने बाली 1 समीर = हवा । भावां--खरल ही है। ' ' अलफार--स्मरण ( कछु लखि, कछु झुनि, सोचि कछु सुधि आचे कछु खास ) । | है दो ०-सख्ि सोहति गोपाल के' उर शुजन की माल | “6 वाहर छसति पना पिये दावानल की ज्वाल ॥६॥ शब्दार्थ-गुंजा-घुंचुची । ज्यवाल-लपट | भातर्थ--हे सखी देखो, गोंपाल के हृदय पर घुंघुचियों की माला ऐसी शोभा देती है, मानों कृष्ण ने जो दाधानल पी लिया है उसी की ज्वाला बाहर दिग्वलाई पड़ रही है! ~ अलंशर-डक्तविषयावस्तूत्पेत्षा । े १० दो०-जागा जहाँ ठाढो छख्यो स्याम सुभग-सिरमोर | ० उनहूं विन छिन गहि रहत दगनि अजहे बह ठोर॥णा।




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