चिन्ता | Chinta

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Chinta by जयशंकर प्रसाद - jayshankar prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विता ५: ` १७ विकल वासना के प्रतिनिधि वे ৮ सव॒ सुरमाये चले गये; आह ! जले अपनी ज्वाला से, १ फिर थे जल सें गले, गये।” ४१ ४ “री उपेक्षा भरी अमरते! गी अतृप्ति ! निवाध विलास ! द्विघा-रहित अपलक नथनों की भूख भरी दशन की प्यास! ४३ बिछुड़े तेरे सब आलिंगन, | पुलक स्पर्श का पता नहीं; मधुमय चुंबन कातरतायें' “आज न सुख को सता रहीं। ४३ ^ र्न सौध के वातायन, जिनमे डा आता मधु-मंदिर समीर; टकराती होगी अब उनमें | तिमिंगिलों..की भीड़ अधीर। |, “देव-कामिनी के नयनों से जहाँ नील नलिनों कौ स्ट होती थी, अब चहो हो रही प्रलय “कारिणी भीषण बृष्टि। ४५




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