पतितोद्वार | Patitodvar

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Patitodvar by जंगबहादुरसिंह - Jang Bahadur Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दूसरा परिच्छेद । ররর সতী = डी ४४४४४६व उस मनुष्य के जी में जो आया | वह नाले के छ अ :+ किनारे किनारे चलने लगा। बहुत दुर निकल পা जाने के बाद उसे नाले की चोड़ाई कम होती ०0७० हुई दिखाई दो,यहाँ तक कि एक स्थान पर आकर बह नाला इतना छोटा हो गया कि उसे बालक भी पार कर सकता था। उसे नॉघनेके पश्चात्‌ वहाँ पर खड़ा होकर वह सोचने लगा कि किधर जाऊँ | बहुत देर तक इधर उधर देखने पर मो उसे पतान चला कि वह मागता भागता किघर निकल श्राया ই। - अधिक समय तक उस स्थन पर खड़ा रहना उचित नं समभ कर वह वहाँ से अनुमान के सहारे एक ओर को चल पड़ा। इस समय वर्षा बन्द्‌ हो गई थी, मेघ-खंड आकाश में उड़ रहे थे श्रोर दो चार नक्षत्र इधर उधर दृष्टिगोचर हो रहे थे। जब वह मनुष्प कुछ दुर निकल श्राया तो उसे सामने सघन वृत्दी को ओट में प्रकाश को क्षीण ज्योति भिलमिलाती हुई दिखाई दी। उसकी आशा जग उठो; और वह उसी श्रोर जल्दी जद्दी पण वदा कर चलने लगा! पथपर गङ्ो इड उस लालटेन के निकट पहुँच कर उसने देखा कि उसके समोपप्थ आजम्रतक को बड़ी बड़ी शोखाएँ ` टूट कर भूमि पर पड़ी हुई थीं। जिससे माग बिवकुल बंद हो गया था। ग्रीष्म ऋतु की प्रचंड धूप में नगर को आते समय वह इसी ज्रक्ष की सघन छाया में बेठ छर श्रम निवारण किया ५2




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