द्विवेदी-काव्यमाला | Dviwedi-kavyamala

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Dviwedi-kavyamala by देवीदत्त शुक्ल devidatt shukal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) ने खड़ी बोली का नेतृत्व करने के पहले भाषा के सुधार और मा्जन की ओर ध्यान ही नही दिया था। उनकी जो कवितायें खड़ी बोली में नहीं है उनके कुछ नमूने केकर उक्त कथन को प्रमाणित किया जा सकता है--- परम विषय यह विषय हैँ जिन आलम्बन कीन। तिन सव भाँति बिगारेऊ सके न करि आधीन ॥ (विनयविनोद---१८८९ ) छाये मेव चहं दिशानि लखिके श्यामा ठलामा महा । घोरारण्य मभार श्याम हंसिकं हो गेहं जयौ कहा । प्यारी आयसु पाय जाय हरि के संकेतित-स्थान मे । कालिदी वर कूर केलि करिही आनन्द पागे रमे । (विहारवारिका--१८९०) विघाता ह कंसो रचत त्रेलोके किमिसुई । धरे कसी देही सकल किय वस्त्‌ निरमई। (श्रीमहिम्नस्तोत्र) ऋतुतरङ्जिणी', शश्रीगगालहरी', ओर 'देवीस्तुनिरतक' की भी भाषा इसी प्रकार की है। काव्यमजूपा में द्विवेदी जी की ब्रज-भाषा और खड़ीबोली दोनों की कवितायें हैँं। ब्नज-भाषा की कविताओ के विषय में यहाँ भी कोई नवीन बात नहीं मिरूती। किन्‍्हीं किन्‍्हीं कविताओं से यह अवश्य सूचित होता हैं कि किस प्रका र धीरे धीरे द्विवेदी जी की काव्य-भाषा व्रज से खड़ी बोली की ओर खिसकती आ रही है। २९ अगस्त १८९८ के हिन्दी-वंगवासी में प्रकाशित गर्दभ-काव्य' से हम दो-एक उदाहरण लेते हे-- हरी घास खुरखुरी लगे अति भूसा छगे करारा है। दाना भूलि पेट यदि पहुँचे, काटे अस जस आरा है। >< ৯৫ >< ১৫ शिशिर वसत हिमंत एक नहि ग्रीषम हमको प्यारा है। तपती भूमि गाँव के बाहर बरफ़िस्तान हमारा है। जहाँ 'अस', जस' जैसे प्रयोग ब्षजभाषा की अस्थिरता प्रदर्शित करते हैं, वहाँ “हमको जैसे प्रयंग और तुकांत का आकारांत खड़ी बोली की ओर सकेत करता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है १९०० के बाद की लिखी हुई प्रायः सभी कवितायें खड़ी बोली की हे। द्रौपदी-वचन-वाणावली' खड़ीबोली की कदाचित्‌ पहली कविताओं में से है, इसी लिए उसमें कहीं कहीं ब्नजभाषा का आभास मिल जाता हैं, जैसे--- धर्मराज से दुर्योधन की इस प्रकार सुति सिद्धि विशा । चितन कर अपकार शतर-कृत, कृष्णा कोपन सकी संभाल । फाण्ख




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