साहित्य और सौंदर्य | Sahitya Saundhrya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
152
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ ७४ |
लिये बाह्य विषयों को टटोल्लता फिरता है । मनुष्य की শল্লন্ব আল
में उसे कभी कभी कुछ सुख भिल जाता है, परन्तु वह् अज्ञान कै
कारण समम लता है कि मुके यह रसकण अम्ुक विषय-भोग से
प्राप्त हुआ है, जब कि वस्तुत; बहू कण उसी 'रस-सिन्धु! ब्रह्म से
ही टपक पड़ता है | परन्तु इन बिन्दुओं से प्यास बुझती नहीं,
बढ़ती जाती है और प्राणी अन्धा होकर “मृगतृष्णा' के पीछे
भटकता फिरता है । यह एक विचित्र विडम्बना है कि सारे विश्व
में वही आनन्द ब्रह्य व्याप्त है फिर भी हमें उसका एक धू'ठ भी
नहीं मिल पाता-- ।
जीवन बन मे उजियाली है ।
यह क्रिरनौ की कोमल धारा बहती ले शरचुराग শুকনা
पिर भी प्यास हृदय हमा, व्यथा घूमती मतचाली है ॥
১৫ ৯৫ ৯.
पक घू ८ का प्यासा जीवन निरख रहा सब को भर लोचन!
कौन चिपाये है उसका धन-कह सजल चह हरिआली है।
- ( प्रखाद' के 'एक धूंढ' से )
द ( ३ ) काव्य
हमारी इख विकराल अतृप्ति का कारण यह है कि हमारे स्थूल-
भौतिक जगत में, वह रस-स्वरूप ब्रह्म शुद्ध तथा आत्यन्तिक रूष
में नहीं रह सकता; अपितु ज सा ऊपर कहा जा चुका है, यहां वह `
घन तथा ऋण, सरस तथा अ-रस, सुख तथा दुःख दोनों ही
पक्षों में मिलता है। हमारे व्यष्टि तथा समष्टि के जीवन में दोनों
सत्व विद्यमान हैँ चाहे हम उन्हें ब्रह्म-माया या पुरुष-प्रकृति কই
. अथवा शक्षिमान-शक्ति या कबि-बाक् कहें; यह बात निर्विवाद
“ है कि यहाँ व्यावहारिक जगत् में इस जोड़े में से दूसरा तत्व ही
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