साहित्य और सौंदर्य | Sahitya Saundhrya

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Sahitya Saundhrya by डॉ फतहसिंह dr fatahsingh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७४ | लिये बाह्य विषयों को टटोल्लता फिरता है । मनुष्य की শল্লন্ব আল में उसे कभी कभी कुछ सुख भिल जाता है, परन्तु वह्‌ अज्ञान कै कारण समम लता है कि मुके यह रसकण अम्ुक विषय-भोग से प्राप्त हुआ है, जब कि वस्तुत; बहू कण उसी 'रस-सिन्धु! ब्रह्म से ही टपक पड़ता है | परन्तु इन बिन्दुओं से प्यास बुझती नहीं, बढ़ती जाती है और प्राणी अन्धा होकर “मृगतृष्णा' के पीछे भटकता फिरता है । यह एक विचित्र विडम्बना है कि सारे विश्व में वही आनन्द ब्रह्य व्याप्त है फिर भी हमें उसका एक धू'ठ भी नहीं मिल पाता-- । जीवन बन मे उजियाली है । यह क्रिरनौ की कोमल धारा बहती ले शरचुराग শুকনা पिर भी प्यास हृदय हमा, व्यथा घूमती मतचाली है ॥ ১৫ ৯৫ ৯. पक घू ८ का प्यासा जीवन निरख रहा सब को भर लोचन! कौन चिपाये है उसका धन-कह सजल चह हरिआली है। - ( प्रखाद' के 'एक धूंढ' से ) द ( ३ ) काव्य हमारी इख विकराल अतृप्ति का कारण यह है कि हमारे स्थूल- भौतिक जगत में, वह रस-स्वरूप ब्रह्म शुद्ध तथा आत्यन्तिक रूष में नहीं रह सकता; अपितु ज सा ऊपर कहा जा चुका है, यहां वह ` घन तथा ऋण, सरस तथा अ-रस, सुख तथा दुःख दोनों ही पक्षों में मिलता है। हमारे व्यष्टि तथा समष्टि के जीवन में दोनों सत्व विद्यमान हैँ चाहे हम उन्हें ब्रह्म-माया या पुरुष-प्रकृति কই . अथवा शक्षिमान-शक्ति या कबि-बाक्‌ कहें; यह बात निर्विवाद “ है कि यहाँ व्यावहारिक जगत्‌ में इस जोड़े में से दूसरा तत्व ही




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