जरासंघवध महाकाव्य | Jaraasandhvadh Mahaakavya

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Jaraasandhvadh Mahaakavya by ब्रजरत्न दास brajratna daas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६२ ) तेहि देखि স্তন सरदार कवि बुधि समान रीको कियो ॥ पंडित हरिचरणजी अपने संस्कृत पत्र मे छिखते है-- ' यशोदा गर्भजे देवि चतवग्ज फरप्रदे। ` श्रीमद्गोपालंचंद्राख्यश्विरायुष्किय तान्त्वया ॥ इनके सभासदौ में पंडित ईश्बरदासजी [ ईश्वर कवि ], गोस्वांमी दौनद्यालगिरि, पं० लक्ष्मीशंकरदासजी व्यास आदि थे। साधु महांत्माओंखे भी इनसे बड़ा प्रेम था । राधिकादास, रामकिकरदासजी, तुलारामजी, भागवतदासजी उस समय के प्रसिद्ध महात्मा थे जिनसे ये भगवत्संबंधी चर्चा किया करते थे। अपने पिता के आरंभ किए हुए बुढ़वामंगल को यह भी उसी प्रकार समारोह के सोथ कराते थे। एक वर्ष एक दुर्घटना हो गई । यह एक कंटरमें संध्या कर रहे थे ओर ऊपर छत पर अनेक सज्ञन बेठे हुए थे। जब ये ऊपर आए तो सभी प्रिष्ठाथ उंठ खड़े हुए। इस हरूचल मे एकाएक नाव उलट गई । पर ईश्वर की कृपा से सभी काई बचकर निकल आए! उसी अवस्था में एक पद्‌ बनाया जिसका अंतिम पद यह है-- गिरिधरदास उबारि दिखायो भवसागर को नमूना | इन्हें अपने घर के श्रोठाकुरजी की सेवा पर ' बचपन ही से ऐसा अनुरांग हो गया था कि वे कहीं यात्रा पर नहीं जाते थ | एकबार पितृऋण चुकाने को गयाजी गये थे जहाँ पंद्रह दिन छगाने का विचार था पर वहाँ पहुँचने पर सेवा का হল- रण कर उन्हे इतना कश्ट होने लूगा कि अंत में तीन ही दिन की गया कर लोट आए । सत्यु के समय भीघर का ओर कुछ सोच न कर ठाकुरजी के सामने साँस भरकर केवल इतना ही कहा था कि दादा तुम्हे बड़ा कष्ट होगा।! इन्हे बचपन ही से मांग का दुव्यंसन लग गया 'था और वे इतनी गाढ़ी भाँग पीते थे कि जिसमे सींक खड़ी हो जाती थी।




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