हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष | Hindi Sahataya Ke Ashi Vars

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Hindi Sahataya Ke Ashi Vars by शिवदानसिंह चौहान shivdaansingh chauhan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भरतावना ड तक हो, श्र्थात्‌ क्या उमे प्रचलित परिपादी के अनुसार खड़ी-बोली हिन्दी से इतर उत्तर-मध्य भारत की अन्य भाषाओं का इतिहास भी सम्मिलित किया जाय या नहीं, यदि किया जाय तो किस रूप में, यदि न किया जाय तो चन्द, कबीर, जायसी, विद्यापति, सूर, तुलसी, मीरा, केशव, भूषण, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, घनानन्द, रत्नाकर आदि के बिना हिन्दी-साहित्य का इतिहास क्या नगण्य नहीं रह जायेगा ? सौभाग्य से इस कल्पित नगण्यता का भय हमें आक्रान्त नहीं करता । हम जानते हैं कि राष्ट-भाषा पद की भ्रतिद्दन्द्विता में उदू के मुकाबले में खड़ी-बोली हिन्दी का दावा मंजूर कराने के लिए उसकी प्राचीनता और व्यापकता प्रमाणित करने के देतु ही नेक प्रवादो का जन्म हुआ था, जिन्होंने अ्रन्ततोगत्वा हमारी इतिहास-दृष्टि तक को संकी्ण बना दिया, लेकिन हमें वक़ालत का यह तरीका प्रारम्भ से ही साम्प्रदायिक लगता रहा है। यह स्पष्ट होना चाहिए कि हिन्दी (खड़ी- बोली ) किसी जन-बल पर राष्ट्रभाषा नहीं बनी, बल्कि ऐतिहासिक মি পপ পাপ পাশাপাশি পিপি পাপা १, हिन्दी ( खड़ी-बोली ) कुरु जनपद (मेरठ-दिल्ली) को मातृभाषा है । उसके बोलने वालों की संख्या ब्रज, अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी या मैथिली से कम ही है और लगभग उदू बोलने वालो के बरावर हे । दिल्‍ली, अलीगढ़, आगरा, लखनऊ, इलाहाबाद, पटना, बनास्सः कलकत्ता, बम्बई, नागपुर, जबलपुर, हैदराबाद ( दक्खिन ) आदि हिन्दी के केन्द्र रहे हैं, तो उदू' के भी; क्योंकि मुसलमानों के शासन-काल में या मुग़ल साम्राज्य के विधटन के समय जो व्यापारी या कर्मचारी-वर्ग इन केन्द्रों में जाकर बस गया था, उसके साथ खड़ी बोली ( प्रारम्भ में उदृ' ) का इन नगरों में प्रसार हुआ । लेकिन इन केन्र की ओर उनके ग्राम-्षेत्र की बहु-संख्यक जनता अपनी प्राचीन मातृ-माषाएँ ही बोलती रहीं |




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