सखाराम | Sakharam

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Sakharam by मदारीलाल गुप्त - Madarilal Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४: सखारष्म। हुए बालों ने उठकर चारो ओर से टोपी को घेर लिया था । दो चार गुच्छे माथे पर मी छ्टकते थे। गोरा शरीर बड़ा सुन्दर और झुकुमार जान पड़ता था। अंग्रेजी फ़ैशन का वना छुआ रेशमी फॉलर-फोट शरीर पर था। जैब में पड़ी हुई घड़ी फी सुनहली चेन बाहर रं मार रषी धी । कोर फा कोर नाभी तक खुखा भा था । फमीज फे सोने फे षटन चौद्ी छाती पर चम्रक रहै थे) फल्या री गयौ । अपना कर्तव्य भूर गयी । चद्द ज्ञो आजन्म के लिये दूसरे से बांधी जा रही थो, इसका उसे तनिक मी ध्यान न रहा । षष्ठ यब स्वतन्त्र नहीं है, उसका हृदय खतन्श्न नहीं है, उसका शरोर दुसरे फे अधीन हो गया है, घिचार उसके घम पन्धन से जकड़ गये हैं, इन सध बातों फी धोर बह ठ्य नष्टौ फर री है । वघ सुन्दर मुख देखा और मोहित हो गयी । उस धारी काभी क्या दोष है! सौन्दर्य्य में अनुपम शक्ति है। उसके सन्मुख फोर अपना मन अपने घश में नहीं रख सकता। पड़े घड़े मद्दात्माओं की भी फ़ुलई खुल गयी है । कन्या ने क्या किया | उसा मन खयं दी दूसरे याभ पर उड़ गया । धह अपने को सम्हाल ही नहीं सकी | यह दोष शष्टिकत्तं का है । उसने अपनी खष्ठि मे सौन्दय्य॑-मेद षयो रखा ! यदि रखा ही तो उसके निरीक्षण फरने के सिये चश्ु कयो प्रदान किये ! । पक शोर पुरोहित वैड फर षर-फल्था फो पक में मिलाने फा प्रयक्ष कर रहा था-पाढ्थी मार फर हाथ पटकते हुए




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