मंगल प्रभात | Mangal Parbhat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्री श्री शुरुदेव १३ ४ बार यदि चातुर्मास उन्होने रंगपुर मं व्यतीत क्रिया, तो दृखसी बार महेशपुर में ओर तीलरी बार ललितपुर में। और ऋतुओं में कब्र तक कहाँ ठहरेगें, इसका किसी को पता नहीं रहता था, स्वयेँ वेभी पहिले से कोई निश्चय नहीं करते थे। आज ज्योत्स्नामयी यत्रि में वेद्विय उपदेश कर रहे हैं,पर कल प्रभाह- काल द्ोते न होते वे अन्तद्दित्त दो जा खकते हैं। किन्तु जहाँ वे पर्वते थे, वदद की जनतां की सब प्रकार से सेवा करने मेवे कथी पराङ्मुख नदीं होते थे। उनका यह भत थां कि देश-हित, समाज-द्वित एवं आत्म-हित्त का सत्य গুন एवं पुएय--मधुर उपदेश देना प्रत्येक सन्‍्यासी का प्रपुछ कर्तच्य छहै, संसार के कठोर करंव्य चेतर से पलायन करके गम्सीर बन-प्रदेश में छिप कर चैठना करतंव्य-च्युत दोना है।वे डुखी की सेवा द्वी को सर्वेश्ष छ मानव-घमं मानते थे। लाथ ही साथ, वे उद्धर विद्वान थे। बेद के वे परिडत শী, হাজী শর उनकी पूर्ण गति थी । संसार की श्रौर भी नेक भाषाओं और उनके साहित्य से भी चे पूर्णतया परिचित थे। अंग्रेजी साहित्य पर उनका अपूर्व आधिपत्य था; समस्त भारतीय भाषाओं के तो वे पू् जाता थे द्वी । अंग्रेजी जाननेवालों का यह कहना है कि जिस समय वे पूर्वीय और पाश्यात्य दुश्शेनों की तुलनात्मक खमालेचना करते हैँ उत समय उनके मुख से ऐसी मधुर झुन्दर पलं अलंकारसयी भाषा का प्रवाद विनिर्गत होता है कि उसे छुन कर शिप्पगण और जिश्ञासु-जन आनन्द ओर विस्मय से विम्ुग्ध हो जाते हैं । फ़ारसी ओर अरबी साहित्य पर भी उनका




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