कहानी-कुञ्ज | Kahani Kunj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९ कहानी-कुख इस समय में नानीसे बिलकुल सट गया था, मेंने अत्यन्त उत्सुकताके साथ पूछा--/फिर ९” तब क्या अपनेको उस साव- आठ बरसके सौभाग्यवान्‌ लकड़ी बीननेवाले बाद्यणके लड़केका स्थानापन्न बनानेकी जरा भी इच्छा नहीं हुई थी! जब उस रातको भाम-मम मेह बरस रहा था, घरके एक कोनेमें दिआ टिम-टिसा रहा था, रौर धीम स्वस्से नानी उस मशहरीके भीतर कहानी कह रही थी, तब क्‍या बालक-हृदयके विश्वास-परायण रहस्यमय अनाविष्कृत एक छोटेसे कोनेमें ऐसी एक अत्यन्त सम्भवनीय तसवीर नहीं जाग उठी थी कि में भी एक दिन सबेरे किसी एक राजाके देशमें राजाके द्वारके सामने लकड़ी बीन रहा हूँ, सहसा एक सोनेकी प्रतिमा लक्ष्मीके समान सुन्दर राजकुमारी- के साथ मेरी माला बदल दी गयी; माथेपर उसके मोग है, कानो- में लटकन है, गलेमे चन्द्रहार है, हाथोंमें उसके कंकण हैं, कमरमें करधनी हे और मेहदीसे रंगे हुए पेरोंमें नूपुर छमछुम करके बज रहे हैं । परन्तु मेरी वह नानी यदि लेखकका जन्म लेकर आजकलके सयाने पाठकोंके सामने यह कहानी कहती, ठो इस बीचमें उन्हें कितना हिसाब देना पड़ता ? पहले तो, राजा बारह वषेतक वनमें ही बेठे रहे और उतने द्नोंतक राजकुमारीका व्याह ही नहीं हुआ, एक खरसे सभी कहते कि यह असम्भव है। पहले तो एसा कमी होता नही, दूसरे, सभी आशङ्का करते कि ब्राह्मण- के लड़केके साथ क्षत्रिय कन्याका विवाहं कराकर लेखक अवश्य ही लोगोंको धोखेमे डालकर समाज-विरुद्ध मतका प्रचार कर रहा है। परन्तु पाठक ऐसे भोले नहीं हैं, और न लेखकोंके




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