मन स्तत्त्व | Man Statav

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Man Statav by यशदेव - Yashdev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ এ हैं। दूसरे शब्दों में, एलनवाइटल किसी निहित उद्देश्य की चरितार्थता के लिए विकास शील नही है, चह केवल अपनी अदम्य “वासना” के द्वारा ही प्रेरित है, और प्राणियो के विविध रूप उसी सुजनात्मक प्रक्रिया के मार्ग में उत्पन्न होते हैं । एलनवाइटल की सृजनात्मकता किसी पूर्व प्रस्तुत उद्देश्य को स्वीकार कर समाप्त हो जाती है । दूसरी शोर अ्ररविन्द हैं जो विकास के मूल में ईश्वर या ब्रह्म की आत्म चरितार्थता की सोहेह्य प्रक्रिया को देखते हैं। उनके प्नु ५ सार, यदि निम्न से उच्चत्तर की उत्पत्ति होती है तो उच्चतर को पहले से ही निम्त में विद्यमान होना चाहिए यद्यपि उच्चतर निम्वतर में स्पष्ट रूप से विद्यमान न होकर केवल वीज रूप में (17 ए0शारएंश णिणएग) ही हो सकता है। अर्थात्‌ उद्देश्यानुकर्षफ शक्ति (1(01ए8 10106), जो निम्ततर को ऊपर उठने को प्रेरित करती हैं, उच्चतर हूँ और निम्नतर में विद्यमान है। उनके अनुसार, विकास त्रिरूप है (१) नवीन उच्चतर की उत्पत्ति (२) उच्चतर का निम्नतर में अवतरण और उसका उच्चतर में रुपान्तरण तथा (३) निम्नतर का उच्चतर हारा अपने उपयोग के लिए सघटन | इस प्रकार वे उच्चतम को भी सदेव विद्यमान मानते हैं, यद्यपि गृप्त रूप में। श्ररविन्द के अनुसार, सच्चिदानन्द श्रयवा सवंमौम ्रात्मा ही पदां का रूप ग्रहण करता हँ जो कि आत्मा के एकदम विपरीत प्रतीत होता है, झौर यह धीरे धीरे विभिन्न स्तरो मे से होकर झरात्म स्वरूप, पूर्ण चेतन्य और प्रानन्द की ओर विकास करता हूँ। स्पप्टत. अरविन्द की इस कल्पना के पीछे कोई तक नही है । सच्चिदानन्द स्वरूप ने, जो कि उच्चतम हं, कंसे पदार्थं का, जो कि निम्नतम है, स्वरूप ग्रहण किया ? और इसमें उसका क्या उद्देश्य हो सकता है ? अरविन्द इसका उदेश्य लीला बताते हैं। तव क्या चैतन्य श्र आनन्द, जो असीम श्र पूर्ण हैँ, अपूर्णता के स्तर भी रखता है? इसी प्रकार, जो चैतन्य है वह নল कंसे हो सकता हैँ? यह सव स्पष्ठतः अन्तविरोध पूर्ण है। अरविन्द औपनिषदिक भ्रानन्दवाद ओर वैष्णव लीलावाद के सौदयं से अभिमूत प्रतीत होते हैं। अन्यथा दर्शन में उनकी स्वतंत्र रुचि नही है। ग्रौर इस ब्रहावाद को ्रावुनिकं वनाने के उरश्यसे श्रयवा श्राघुनिक विन्ञानादि से उसकी रक्षा के लिए उन्होंने विकामवाद और साइकोएनेलेचिस इत्यादि का उपयोग किया श्रौर उन “निननतर” रिद्धान्तो में “उच्चतर” ब्रह्मवाद को मिलाकर उनका उदात्तीकरण कर दिया। किन्तु कुछ दार्शनिक वास्तव में ही जीवन की विचित्रता से प्रभावित




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