मृच्छकटिकम् | Mrcchkatikam

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Mrcchkatikam by कृष्णकान्त त्रिपाठी - Krishnakant Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका । १३ ए८ एण्ड 10७ টি 2০0] 00০ চিএ 2850150৩৭ মত আজও 1005 হল कनकलता कत्‌ ऋफ [2 9१6 पलप, धाप्निकतता -- शूद्रक सदाचारी मौर घममपरायण क्षत्रिय थे। समवत वे दिवजीके भक्तये) यह वेत्त नाम्दी पयोमे प्रयुक्त शम्भोवं पातु समाधिः तथा “पातु वो नीलकण्ठस्त्य कण्ठ” एवं दशम भड्डू में प्रयुक्त 'जयति वृषभकरेतु ' इत्यादि वाक्यों से प्रतीत होती है । वे वेदिक घर्म के अनुयायी थे । देवपूणा एवं बलिकर्म को वे प्रहम्ध की नित्यविधि के रूप म मानते थे ।' वे लग्निहोत्र करते ये बौर तपस्वी थे । वे मोगाम्यासी थे । उन्होने अश्वमेघ यज्ञ मी किया था) वैेदास्त के ब्रह्मत्व में वे विश्वास करत थे । भरत वाक्य से यह्‌ स्पष्ट विदित होता है कि वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था में उनकी आस्था थी | वे कहते है. 'सततमभिमता ब्राह्मणा सन्तु सन्‍्तः तथा “श्रीमन्त. पान्तु पृथिवी प्रश्ममितरिपवों घर्मेनिष्ठाइव भूपा ॥! वेमो के भी भक्त ये-- यह बात उनके इस कथन से स्पष्ट हैं. 'क्षीरिण्प सन्तुयावों / शूद्रत दैव पर भी विदवामं करते थे यह्‌ ददाम नङ्क के ६०बे शलोक (कारिवतुग्यत्त विधि ) से स्पष्ट है। निवास स्थान- 'मृच्छकरटिक' के रचबिता शूद्रक दाक्षिणात्य (महाराष्ट्र निवासी) प्रतीत हांते हैं॥ विल्सन महादय उन्हें आन्‍्प्रवश का प्रथम राजा स्वीकार करते हैं। आान्प्रवश का राज्य भी दक्षिण म था, अत वे स्वाभाविक रूप से दाक्षिणात्य प्रतीत होते हैं। वामन वे 'काव्यालकारमूत्र' के' एक टीकाकार श्ूदक कौ रामा कोमति ” लिखते हैं। काले महोदय के अनुसार कोमति एक मद्रास प्रदेश की जाति विश्वेप हैं। अत वे दाक्षिणात्य ही प्रतीत होते हैं। 'मृच्छकटिक' के कुछ अन्त प्रमाण भी इस मत वो ही पृष्टि करते हैं । द्वितीय अद्धू मे कर्णपूरकः वसन्‍्त सेवा के हाथी के लिए 'पुण्टमोडक, शब्द का प्रयोग वरता है। यह शब्द दक्षिण में ही प्रचलित है । दशम भद्धू म॒ चाण्डाल दुर्गा दवी के लिये 'सहावासिनी' दाव्द का प्रयोग करता है. “गवत्ति सह्यवाप्तिनि, प्रसीद प्रष्ठीद'। उत्तर के कवि दुर्मा को “विन्ध्यवासिनी, नाम से सम्बोधित करते हैं; किन्तु दक्षिण के 'सह्ायवासिनी' नाम से । पष्ठ भद्धू मे खम्दनव दाक्षिणात्यों वी भाषा सम्बन्धी विशेषता बतछाते हुए कहता है-- श्वय दाक्षिणात्या भव्यक्तमापिणं ” दसै अतिरिक्त वह दक्षिण कौ खत्त, खत्ति, सडा, खडह्‌ द्रविड, चोल, चीन वर्वर यादि मनेक म्लेच्छ जातियो का भी उल्छेस करता है। इसके अतिरिक्त वह दक्षिण के 'कर्णाटक्लह झाब्द का भी प्रयोग कर्ता है। अत शूद्रक को दाक्षिणात्य (१) मृच्खकटिक ११६1 (২) जीण्के जट পিই दु मृच्छवरिकर १० १८५३




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