जवाहरलाल नेहरू संघर्ष के दिन | Javaaharalaal Neharu Sangharsh Ke Din

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Javaaharalaal Neharu Sangharsh Ke Din by Ravindra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिंदुस्तान के इतिहास पर एक नजर ये दिन बड़ी हलचल के दिन थे। मैं इन दिनों में हुई घटनाओं के बार में सोचा करता लेकिन मेरे दिमाग पर हमेशा हिंदुस्तान छाया रहता । मैं हिंदुस्तान को समझने और उसके बारे में अपने विचारों का विश्लेषण करने की कोशिश करता । मुझे अपने बचपन के दिन याद आते और मैं यह याद करता कि उन दिनों मैं क्या सोचता था इस बारे में मेरे मन में कौन-सी धुंधली तस्वीर थी और ज्यों ज्यों मुझे नये नये अनुभव होते गये त्यों त्यों इन अनुभवों के आधार पर यह तस्वीर किस तरह बदलती गयी । कभी कभी यह भावना पृष्ठभूमि में चली जाती लेकिन यह हमेशा रही और धीरे धीरे पुराने किस्से-कहानियों और मौजूदा असलियत--दोनों बातों का मिलकर एक अजीब घोल तैयार हो गया। इससे मुझमें गर्व पैदा हुआ और साथ ही साथ शर्मिंदगी भी जो इसलिए कि मैं अपने चारों ओर अंधविश्वास दकियानूसी विचार और इस सबके अलावा लोगों को गुलाम और गरीब पाता। ज्यों ज्यों मैं बड़ा होता गया और उन कामों में लगा जिनसे हिंदुस्तान की आजादी की उम्मीद की जाती थी तब मैं हिंदुस्तान के बारे में खो गया । यह हिंदुस्तान क्या है जो मुझ पर छा गया है और मुझे बराबर अपनी ओर खींचता जा रहा है मुझे कुछ काम करने के लिए उकसा रहा है जिससे हम कुछ ऐसे लक्ष्य को पूरा कर सकें जो साफ साफ नजर नहीं आता था लेकिन जिसे हम अपने दिल से पूरा करना चाहते हैं। मैं सोचता हूं कि जो प्रेरणा मुझमें पैदा हुई वह शुरू शुरू में मेरे अपने निजी और राष्ट्रीय गर्व के कारण हुई और ऐसी ख्वाहिश के कारण जैसी कि सभी लोगों में होती है कि दूसरों की हुकूमत का सामना किया जाये और ऐसी आजादी को हासिल किया जाये कि हम मनपसंद तरीके से अपनी जिंदगी बसर कर सकें। यह देख कर मुझे बेहद हैरत हुई कि हिंदुस्तान जैसा मुल्क जिसका इतना समृद्ध और शानदार इतिहास रहा हो बहुत दूर एक टापू पर बसे देश के द्वारा किस तरह गुलाम बना डाला गया और उस पर किस तरह अपनी मनमानी कर रहा है। मुझे इससे भी ज्यादा हैरत की बात यह लगी कि इस जबरदस्ती का नतीजा यह हुआ कि हम गरीब हो गये और इस तरह टूट गये कि उठने की ताकत भी खो बैठे । यह वजह मेरे और दूसरों को काम में जुट जाने के लिए काफी थी। दि डिस्कवरी आफ इंडिया पृष्ठ 50-55 से। यह पुस्तक अहमदनगर किले की जेल में अपैल से सितंबर 1944 के दौरान लिखी गयी। यह सर्वप्रथम 1946 में प्रकाशित हुई।




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