ललितविस्तर | Lalitvistra

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Lalitvistra by शांति भिक्षु शास्त्री - Shanti Bhikshu Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~ 12 ~ अन्यकतः प्रथमे मासि सप्ताहात्‌ करी भयत ॥ ছিব এব হু घनः पेर्यथन दम्‌ ॥ न्थनतीभव ति मासेऽू५ तृतीये ५।ज५य.चकम्‌ 1 भूषा हें सकिधिती बाहु सर्व॑ नाद्धेजन्म च 11 सममेव हि भूचलिज्ञात च सुलदुःखयोः । चतुर्थ व्यवतताडु।ना चेततायाश्व पूल्‍्चम 11 ५७९ स्तायुसिरारोमबलबेण॑नसत्वेचाभू | सर्वेः सर्वाङ्गसंपूर्णेमावैः पुष्यति सप्तमे ॥ जोजोऽन्टमे संचरति भ॑सापृत्री मुहुः क्रमात्‌ 1 ताद्मस्प्यकाहयात्तेऽपि करः सूतेरतः ५९५ 11 (भप्५। ध ६८५, २।।री सस्थान, अ९५।५ 1) गभं एक सप्ताहं मे कलल (चिपचिपा कीचड़) জলা হী पहले मास भर में अन्य किसी अवस्या में प्रकट नहीं होता, दूसरे मास में वह गांठ जैसा हो जाता है जिसे घन, पेशी अथना अर्थुद नाम से कहा जाता है, तुतीय मास में शिर, दोनों ८गें तथा दोनों भुजाएँ ये पाँच अंग प्रकट हो जाते है, सभी अद्भू सूक्ष्म रूपसे निकेल भाते है, तथा श< आदि अज्ों के साथ सुख मोर “दुःख का ज्ञान होने लगता है, चौथे मास में सभी (सक्ष्म) भज्भ स्पष्० हो जाते है तथा पांचवे भास में चेतना (मनःक्रिया) होने लगती है, छठे मास में स्वायु, सिर), सोन, चल, वर्ण, नखे तथा त्वचाएँ व्यक्त हो जाती है, सातवें मास में सब अज्डों को पूर्ण करने वाले तत्चों से गर्भ पृष्ठ हो जाता है, आठवें भास में माता से पुत्र में तथा पुत्र से माता में बारंबार ओज का संचार होता <हता है । তখন, এপ তক दिन भी अधिक हो जाए तो प्रसव-काल ससझ्षना चा|हि५ । यह सब वैज्ञानिक तथ्य है जिसमें अन्यथाभाव सभव चंही । पर >लितबिच्तर के कवि के अनुसार बोविक्षत्व का छारीर प्रारंभ से ही परिपूर्णांग हो, माता की दाहिनों कोल में, सहजोत्यन्त मार मे पद्ध पर विराजमान होता है, वहां देवता जा-मान९ उपासन करतें है, चाचा दिगामों से आकर अन्य वोधिसच्व उपासता करते हैं। उस गर्भवात में भी वोजिसत्व घर्म से दवभणों तथा वोधितत्व झर्णो का अनुशासन करते थे । जब बोघिसरुण मद्दामाया देवी के गर्भ में थे तब उनमें भी कनेक दिव्य शक्तियों का पादुर्भाव हुआ था । रोमियो को बंद छू देतो थी, तो उन्नत रोग दूर हो जाता था, उनकें हाथ का दिया तिनका मी मैधेज्य बन जाता था। इस अब्यर दिव्यभाव से सर्भ में निवास करते हुए लुविनी-वन में दवधर्थों से जनिनन्दित, चानाअकार को चमत्कारी घटनाओं से




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