दृष्टिदान | Drishtidaan

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Drishtidaan by श्री रविन्द्रनाथ ठाकुर - Shree Ravindranath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इृष्टिदान १७ शुक आसन पर बैठा सकता हैँ ? कहफर मेरे मुंह को उठाकर मेरे ललाट का एक निमतर चुम्बन किया, उस चुम्बन द्वारा जैसे मेरा तीसरा नंत्र खुल गया, उसी क्षण मेरे देवीत्व का जभिषेषः हो गया। मैंन मन- ही मन कहा--यही ठीक है । जब ज वी हा गई हूँ, तव मैं इस वाहरी दुनियाँ को गृहिणी बनकर ही नहीं रह सकूगी, अब मैं ससार स ऊपर उठकर, देवी बसकर, अपने पति वा कत्याण करूँगी । अब झूठ नहीं, छल नही, यरहिणी रमणी वी जो कुछ छ्ुद्गत[ एवं कपट है, उस सबको दूर कर दिया है । उस दिन दिनभर अपन साथ ही एक प्रवार का विराध चदता रहा । कठिन शपय मे बेंधवर स्वामी (अब किसी प्रकार भी दूसरी बार विवाह गही करः सक्गे, वह अन-द मन के भीतर जवे एक्वारगी दशन वर उठा, क्रिसी भो प्रकार उसे त्याग नहीं सकी । अब मुझम जिस नवीन देवी दा जाविभाव हुआ था, उसने कहा-- शायद ऐसा दिन भी জা सकता है, जब इस शपयं पालन की जपना विवाह कर लने से ही तुम्हारे पति का मंगल हांगा ।” परतु मुझम जो पुरानी वारी थी, उसने कहा--भले ही हां, पनातु जब उहोंने शपथ कर ली हू, तव तो वे दूसरा विवाह कर ही नहीं सकते !! देवी ने कहा--'सो ही, তু इमस तुम्हारे खुश होने का कोई कारण नहीं हैं।' मानवी ने बहा--- सब समझती हूँ, परतु जब वे शपथ कर चूते हैं, तब इत्यादि ।! बार- बार चही एक बात । देवी ने उस समय केवल निस्तर हो भह चढाती एव एक भयानक माका के अंधकार से मरा समस्त अन्तररण आच्छान्त हो गया । भरे जनुतप्तं स्वामी, दास मियो का निषेध कर न्‍्वय ही मेरे বর দানা কী करने मे प्रवृत्त हा गए ६ स्वामी वे ऊपर सुच्छ बातो के लिए भी इस प्रकार तित्पाय निभर रहना पहल पहल अच्छा हो लगा । कारण इस प्रकार उहें सर्देव ही अपने समीप पाती थी ) मआँखा से उन्हे




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