संस्कृति का प्रशन | Sanskriti Ka Prashan

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Sanskriti Ka Prashan by जे. कृष्णमूर्ति - J. Krishnamurti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शिक्षा ६ 'उपलब्ध कर सकते हैं जब आप अविछिन्न खोज करते हैं, सतत निरीक्षण करते हैं और निरन्तर सीखते हैं। लेकिन यदि आप भयभीत हैं, तब आप न तो खोज कर सकते हैं, न निरीक्षण कर सकते हैं, न सीख सकते हैं और न गहराई से जागरूक ही हो सकते हैं। अत: निर्विवाद रूप से शिक्षा का यह कार्य है कि वह इस आन्तरिक और बाह्य भय का उच्छेदन करे-यह भय जो मानव के विचारों को, उसके सम्बन्धों को और उसके प्रेम को नष्ट कर देता है। प्रश्नकर्ता : यदि सभी व्यक्ति क्रान्ति करेंगे तो क्‍या विश्व में चारों ओर अराजकता नहीं फैल जाएगी? कृष्णमूर्ति : आप प्रश्न को सर्वप्रथम अच्छी तरह सुन लें, क्योंकि इसके पूर्व कि आप उत्तर की प्रतीक्षा करें यह समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है कि प्रश्न क्या है? पूछा गया है-- यदि सभी व्यक्ति क्रान्ति करेंगे तो क्या विश्व में अराजकता नहीं फेल जाएगी? लेकिन क्या हमारा वर्तमान समाज इतना सुव्यवस्थित है कि यह प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की गई क्रान्ति से अव्यवस्थित हो जाएगा? क्या अभी अराजकता नहीं है? क्या प्रत्येक वस्तु सुन्दर हे, पवित्र है? क्या प्रत्येक व्यक्ति आनन्द से, समृद्धि से, पूर्णता से जी पा रहा है? क्या व्यक्ति-व्यक्ति में विरोध नहीं है? क्या चारों ओर महत्त्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्धा नहीं है? अतः हमें सर्वप्रथम यह समझ लेना है कि विश्व में पहले से ही अराजकता है। आप कहीं इसे सुव्यवस्थित न समझ बैठें! कहीं कुछ शब्दों से आप स्वयं को मोहित न कर लें! चाहे भारत हो, चाहे यूरोप, चाहे अमेरिका हो, चाहे रूस; सम्पूर्ण विश्व ही नाश की ओर अग्रसर हो रहा है। यदि आप सचमुच इसका क्षय देखते हैं तो यह आपके लिए एक चुनौती हे! चुनौती हे कि आप इस ज्वलन्त समस्या का हल खोज । यदि आप इस चुनौती का उत्तर एक हिन्दू अधवा एक वाद्ध या एक ईसाई या एक साम्यवादी कौ भति देते हं तव आपका यह प्रत्यत्तर अत्यन्त सीमित होगा। बल्कि सचमुच यह प्रत्युत्तर ही नहीं होगा। आप इसका प्रत्युक्त पूर्णता से तो तभी दे सकते উ जव आप मेँ अभय हो, आप एक हिन्दू या एक साम्यवादी या एक पूँजीपति की भाँति न सोचें अपितु एक समग्र मानव का भाँति इस समस्या का हल खोजने का प्रयत्न करें। आप इस समस्या का तव तक हल नहीं कर सकते जब तक कि आप स्वयं सम्पूण समाज के खिलाफ क्रान्ति नहीं करते, इस महत्त्वाकांक्षा और इसके खिलाफ़ विद्रोह नहीं करते जिनपर सम्पूर् +०- मानव समाज आधारित है। जब आप स्वयं महत्त्वाकाक्षा नहा परिग्रही न তত शै




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