श्री भागवत-दर्शन [ खण्ड - 03 ] | Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 03 ]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घमराज का अश्वमेघ यज्ञ करने का विचार १९१ शेत्रु मारे गये, अपना गया हुआ राज्य पुनः प्राप्त हो गया। चूध्वी के सभी राजा अपने अभीन हो गये | वंश को बढ़ाने वाल्ला पौत्र भी हयो गथा । रव धर्मराज ने सोचा--/हमने कुल का संद्वार किया है, जाति द्रोह का पाप फिया है, सगे सम्ब- न्धियो को माया है, इसका छु प्रायश्चित्त तो होना ही चाहिए, यह सब्र सोचकर उन्हनि व्यास धौम्य, कूपाचायं आदि अपने छुलपूज्य पुरोदितों को तथा अन्यान्य ज्ञानी-ध्यानी ऋषि सुनि तथा बेदज्ञ ब्रह्मणो को बुल्लाकर श्रपने मन का भव बताया और पूछा-- হুল আবি হাহ जनित पाप का मैं क्‍या प्रायश्चित्त करूँ 9 तब ब्ाक्षणों ने विचार कर बताया--“राजन ! क्षत्रिय के लिये युद्ध मे शख लेकर लद्ने कौ इच्छा से आये हुए शप्नु को मार देना कोई पाप नहीं है |फिर भी युद्ध में अनेक तरह के पातक, उपपातक हो जाते हैं | युद्ध के उपरान्त यदि राजा अश्व- मेध-यज्ञ कर देता है, सो वह सब पापों से निरुक्त होकर निष्पाप भन जाता द । श्राप मी अश्वमेध-यज्ञ करके अपने युद्ध जनित दोप को छुड़ाकर निर्दोष बन जाइये | वास्तव में तो आप अब ओ निर्वोप हा हैं, किन्तु फिर भी लोक संग्रह और धर्म मर्यादा को बनाये रखने के निमित्त आप जो कुछ करना चाहते हैं, सो को जिये। बड़ो अच्छी बात है |” धमंराज ने दुखित द्वोकर कद्दा-- आ्राह्मणो ! मेरे पाप अन्य युद्ध करने वालि राजानो से बहुत बढ़कर हैं। मैंने तोन बड़े-बड़े पाप किये हैँ । एक तो अपने बन्धु-बान्ध और कुल गोत्र बालों को हो मार डाला है, दूसरे अपने भीष्म, द्रोण आदि शुरुओं को “करा है, जो सर्वेथा अबर्ध्यं बताये गये हैं 1 तोसरे मूंधाभिषिक्त “इंजार्सों बंडे-बड़े 'धमोत्मा राजोओं का बध किया है [' इस प्रकोर




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