श्री भागवत-दर्शन [ खण्ड - 03 ] | Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 03 ]
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
228
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)घमराज का अश्वमेघ यज्ञ करने का विचार १९१
शेत्रु मारे गये, अपना गया हुआ राज्य पुनः प्राप्त हो गया।
चूध्वी के सभी राजा अपने अभीन हो गये | वंश को बढ़ाने
वाल्ला पौत्र भी हयो गथा । रव धर्मराज ने सोचा--/हमने कुल
का संद्वार किया है, जाति द्रोह का पाप फिया है, सगे सम्ब-
न्धियो को माया है, इसका छु प्रायश्चित्त तो होना ही चाहिए,
यह सब्र सोचकर उन्हनि व्यास धौम्य, कूपाचायं आदि अपने
छुलपूज्य पुरोदितों को तथा अन्यान्य ज्ञानी-ध्यानी ऋषि सुनि
तथा बेदज्ञ ब्रह्मणो को बुल्लाकर श्रपने मन का भव बताया
और पूछा-- হুল আবি হাহ जनित पाप का मैं क्या प्रायश्चित्त
करूँ 9
तब ब्ाक्षणों ने विचार कर बताया--“राजन ! क्षत्रिय के
लिये युद्ध मे शख लेकर लद्ने कौ इच्छा से आये हुए शप्नु को
मार देना कोई पाप नहीं है |फिर भी युद्ध में अनेक तरह के
पातक, उपपातक हो जाते हैं | युद्ध के उपरान्त यदि राजा अश्व-
मेध-यज्ञ कर देता है, सो वह सब पापों से निरुक्त होकर निष्पाप
भन जाता द । श्राप मी अश्वमेध-यज्ञ करके अपने युद्ध जनित
दोप को छुड़ाकर निर्दोष बन जाइये | वास्तव में तो आप अब
ओ निर्वोप हा हैं, किन्तु फिर भी लोक संग्रह और धर्म मर्यादा
को बनाये रखने के निमित्त आप जो कुछ करना चाहते हैं, सो
को जिये। बड़ो अच्छी बात है |”
धमंराज ने दुखित द्वोकर कद्दा-- आ्राह्मणो ! मेरे पाप अन्य
युद्ध करने वालि राजानो से बहुत बढ़कर हैं। मैंने तोन बड़े-बड़े
पाप किये हैँ । एक तो अपने बन्धु-बान्ध और कुल गोत्र बालों
को हो मार डाला है, दूसरे अपने भीष्म, द्रोण आदि शुरुओं को
“करा है, जो सर्वेथा अबर्ध्यं बताये गये हैं 1 तोसरे मूंधाभिषिक्त
“इंजार्सों बंडे-बड़े 'धमोत्मा राजोओं का बध किया है [' इस प्रकोर
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