भारतीय दर्शन का इतिहास | Bhartiye Dharashan Ka Itiyash Vol 4 (1972)ac 5312

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : भारतीय दर्शन का इतिहास  - Bhartiye Dharashan Ka Itiyash Vol 4 (1972)ac 5312

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about डॉ सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त

Add Infomation About

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
भागवत पुराण |] [ ५ (भ्पूर्ष ) है जो कार्य की समाप्ति के पदचात्‌ दीर्थकाल तक विद्यमान रहता है तथा उच्चित समय पर उच्चित एवं अशुभ प्रभाव उत्पन्न करता है ।* स्मृति-साहित्य के स्रोत वेद माने जाते हैं, झतः उसे प्रामाणिक समझना चाहिए, डसकी सांमग्री का मूल यदि वेदों तक नहीं खोजा जा सकता है तो भी यह प्रनुमान द्वारा सिद्ध होता है कि उक्त बैंदिक मूल-पाठ अस्तित्व में रहा होगा ।१ स्मृति तभी अमान्य समझी जानो चाहिये जबकि किसी विशेष श्रदेश प्रथवा तथ्य के कथन भे वेदो द्वारा उसका प्रत्यक्ष ब्याघात किया जाय । भतएब स्मृति-ग्रन्थ सामान्यतया वेदों के क्रमानुवरत्ती माने जाते हैं। यद्यपि वास्तव में स्मृति-ग्रन्थ परवर्सी युग में विभिन्न कालों में लिखे होने के कारण कई नवीन प्रत्ययो भौर कई नवीन भादशों का श्रीगरेष करते हैं, पर कुछ स्मृतियो मे पुराणो श्रौर स्पृतियों के उपदेशों को वैदिक उपदेशों से निम्नतर स्तर का भाना गया है।” स्मृति और वेदों के सम्बन्ध पर कम से कम दो भिन्न दृष्टिकोश हैं। प्रथम दृष्टिकोण के अनुसार यदि स्मृतियाँ वेदों से विपरीत हों, तो स्मृति के मूल-पाट की इस प्रकार व्यस्या करनी चाहिए किं वहं वंदिक मूल-पाठ के संदर्भ मे सहमत हो जाय, भर यदि ऐसा सम्मव न हो तो स्मृति के भूल पाठको भ्रमान्य समभना चाहिये । अन्य विद्वानों के भ्रनुसार विपरीत स्मृति मूल षाठ को श्रमान्य ही समना चाहिये । मित्र मिश्र, शवर एवं भट्ट शाखाभ्रों के उपयुक्त दो मतो पर टीका करते हुए कहते है कि पहले मत के भ्रनुसार यह्‌ सदेह हो जाता है कि वेदों से विपरीत स्मृति के मूल पाठ का लेखक त्रुटियों से मुक्त नहीं है, भ्रतएवं वेदों से श्रविपरीत स्मृति के मूल पाठां को मी दोषपुर समाजा सकता है जिनका ल्ोत वेदों में नही खोजा जा सकता। द्वितीय मत के अनुक्षार स्मृति को मान्य समक्रा जाता है क्योंकि कोई यह निशचयपू्वक नहीं कह सकता कि वे वेदों से भ्रविपरीत मूल-पाठ, जिनका स्रोत वेदों में नहीं खोजा जा सकता, यथार्थ में वेदों में विद्यमान हैं। जिनमें सामजस्य की कोई गु जायश न हो, ऐसे वेदो से विपरीत मूल-पाठों की दक्षा में भी, स्मृति के आदेश वं दिक श्रादेशो से विपरीत होने पर वेकल्पिक रूप से मान्य समे जा १ न हि ज्योतिष्टोमादि-यागस्यापि धमेत्व श्रस्ति, भ्रपुवंस्य धमेत्वाम्युपगमात्‌ । - शास्त्र-दी पिका, ” पृ० ३३, बम्बई, १६१४। + विरोघे त्वनपेक्ष्य स्थादस्ति ह्ानुमानम्‌ । -“मीमांसा-सूत्र,” १, ३, ३ । 3 श्रतः सं परमो धर्मो यो वेदाद्‌ भवगम्यते म्रवरःसतु विज्ञेयः पुयेराणादिषु स्मृतः त्था च वेदिक धमों मुख्य उक्ृष्टत्वात्‌, स्मातेः भनुर्कत्पः भ्रप्रकृष्टत्वात्‌ । -“बीर मित्रोदय-परिभावा-प्रकाश' में “व्यास-स्मृति” से उद्घृत पृ० २६ ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now