ह रि वं स पु रा णु | Harivansh Puranam Vol 3 (1997) Ac 5968

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# १४ ' महांपुराण हुए ये! । इसके सिवाय वे राजाके दानमंत्री मी चेः । इति्ासमे इष्ण तृतीयके एकं त्री नारायणका नाम तो. मिठता ह , जो कि बहत ही बिद्रान्‌ ओर राजनातिह था परन्तु भर्त महामात्यका अब तक किसीको पता नहीं। क्योंकि पृष्यदन्तका साहित्य इतिहासब्लोंके पास तक पहुँचा ही नहीं। पृष्पदन्तने अपने महापुराणमें भग्तका जो बढुत-सा परिचय दिया है, उसके परिवाय उन्होंने उसकी अधिकांश सन्धियोंके धरम्भमें कुछ সহাক্লিদ भी पीछेसे जोड़े हैं जिनकी संख्या ४८ है । उनमेंसे छुद्ट (५, ६, १६, ३२०, २५, ৪৫) तो शुद्ध प्राकृतके हैं और शेष संह्कृतके | इन ४८ पद्योंमें मरतका जो गुण-कीर्तन किया गया है, उसते भी उनके जीवनपर विस्तृत प्रकाश पड़ता है | हो सकता है कि उक्त सारा गुणानुवाद कबविलपूर्ण होनेके कारण अतिशयोक्तिमय हो, परन्तु कविके खभावको देखते हुए उसमें सचाई भी कम नहीं जान पड़ती । भरत सारी कलाओं और बिद्याओंमें कुशल थे, प्राकृत कवियोंकी रचनाओंपर मुग्ध थे, उन्होंने सरखती घुरभिका दूध पिया था। छक्ष्मी उन्हें चाहती थी। वे सत्यप्रतिज्ञ और निर्मत्सर थे। युद्धोंका बोझ ढोते ढोते उनके कन्धे घिस गये थे,” अर्थात्‌ उन्होंने अनेक लड़ाइयाँ छड़ी थीं। बहुत ही मनोहर, कवियेकिं छिए कामधेनु, दन-दुषिर्योकी आशा पूरी करनेवाले, चारो ओर प्रसिद्ध, परजीपराङ्मुख, स्रित्र, उश्नतमति ओर सुजनेकि उद्धारक थे । उनका रग सबला था, हाथीकी सूडके समान उनकी भुजे थी, अङ्ग सुडौठ थे, १ सोयं प्रीभरतः कलंकरहितः कान्तः युक्तः शविः सज्ज्योतिर्मणिराकरो ष्छंत वानर्यो गुभै्भासते । शो येन पवित्रतामिह महामात्याहयः प्रासवान्‌ श्रीमदछमराजश्तिकटके यश्चामदन्नायकः ॥ ० शे ° ४६ २ ई हो भद्र प्रचण्शावनिपतिभवने ्यागचुख्यानकत्तौ कोऽयं श्यामः प्रधानः प्रवरकरिकराकारबाहुः प्रसन्नः । घन्यः प्रलियपिष्डोपमघवस्यशषो घोतघाश्रीतसखम्तः स्यातो बन्धुः कवीनां मसत इति कथ पान्थ जानासि नो स्वम्‌॥१९५ १ देखो साज्येटगीका হি, इं० ए० जिल्‍द ४, ए० ६० । ४ बम्बईके सरस्वती-भबनभ महाधुराणकी जो बहुत दी अशुद्ध प्रति है उसकी ४२ वीं सन्धिके बाद पक ^ इरति मनसो मोहं ' आदि अञ्चु प्च अधिक दिया हभा है | जान पढ़ता है अन्य प्रतियोमे शायद इस तरहके और भी कुछ पद होंगे | कै ७, ০. ভু णीसेसकलाविष्णाणकुलछ | पाययकइकव्वरसावउद्ध संपीर्यंसरातशसुरहिदुद्ध ॥ कमलस्छु अमच्छर श्करसेषु = रणमरुरधरणुगहलेषु । ६ सबित्मसाकित्मिभिदियश्येणु सुपतिदमझाकश्कामधेणु । काणीणदीणपरिपूरियासु जसपसरपसाहियदसदिसासु ॥ परवमणिपरम्मुह्ु सुदसीड उष्णयमह सुवणुदरणरीषट ।




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