परमात्मप्रकाशः | Parmatma Prakasha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी धनुषाद है-- सोलह तीर्थेकरों के एक हो समय तीर्थकरों के उत्पत्ति के दिस पहले खारिन्रज्ञान को खिसि हुई, किर भ्रस्तसु हुत॑ में मोल हो गया । यह तथ्य-विरुद्ध कथन मेरी समभ में नहीं श्राया । किसी भी तीर्भकर की केवलशान तिथि श्ौर मोझतिथि एक नहीं है । जिनकी (४ बे, ७ बे, १४ वें) एक है बह भी जिन्न वर्ष सम्बन्धी है । फिर यह कंसे माता जा सकता है कि सोलह तीर्थंकर केवलज्ञान के प्रन्लमु हु बाद ही मोक्ष चले गए । निलोयपण्णत्ती (४/8४३-६६०), हरिदशपुरारग (६०/३३२-३४०) एवं सहापुराण (४८ से ७४ तेक के सर्गों ) में तीधकरों का केवलीकाल बनाया है, उसमे एक भी तीर्थंकर का केवलीकाल संख्यात वर्ष से कम नहीं बताया है फिर अ्र्तयु हूृत॑ में मोक्ष जाने की बात कसे सम्भव है ? फिर किसी भी तीथेंकर को मुनि होने के श्रन्तमुं हुत॑ बाद केवलजञान नहीं हुआ । सबसे शीघ्र महिलिनाथजी को हुमा, वह भी ६ दिन मुनिपद में रहने के बाद । शेष तीर्थकर इससे म्रधिक समय लक मुनि ग्रवस्था (छ्यस्थावस्था) में रहे । (लि पे भाग २ पृ २०३ गाथा ४६८5१) । इस औान्ति का अस्त करने के लिए मैने उपलब्ध श्रस्य प्रतियाँ भी देखी । रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला के विभिन्न सस्करणाों में यही श्रनुवाद है । दिगम्बर जैन समाज कुकसवाली (राज०) से प्रकाशित परमात्मप्रकाण के पृष्ठ ८ डे पर भी यही प्रनुवाद है । पूज्य सहजानस्द जी वर्गी ने 'परमात्मप्रकाश' पर प्रवचन किये है, जी दो भागों मे छपे है, परन्तु इस प्रासंगिक पक्ति पर उन्होंने भी श्रपने प्रथयन में कुछ नहीं कहा है । मैन समाधघान हेतु फिर परवाचार किया । एक समाधान मिला कि १६ तीर्थकरों की जन्मकल्यागाक तिधियाँ श्रोर उनकी दीक्षाकत्यागगक तिथधियाँ एक ही है (पर वे सी सिस्नवर्ष सम्बन्धी है ।) पर इस बात से प्रासंगिक पक्ति का कोई सम्बन्ध नहीं हे । कुछ वर्ष पुर पे जवाहरलालजी सिद्धान्तशास्त्री से वर्गीजी के 'परमात्मप्रकाण' प्रबचनों का दो भागों से सम्पादन किया था---मैने श्रपनी समस्या से उनको भी श्वगत कराया । झादरगीय पण्डितजी ते “भगवती श्राराधना' से सूल गाथा खोज कर युक्तिसगत समाधान शिजवाया जो प्रस्तुत सस्करणा के पृष्ठ ८ पर छपा है ज-मगवान ऋषमदेव से शान्तिनाथ तीरथेंकर पर्यन्त १९ तीथंकरों के तीर्थ को उत्पत्ति होने के प्रथम दिन हो बहुत से साधु दीक्षा लेकर एक भ्रन्तमु हुत॑ में केवलज्ञान को प्राप्त कर मुक्त हुए । | मगबती ग्राराधना गा स्‍०३े3,पू 5०३ जयपुर प्रकाशन ) । ग्रव सिद्धातत व प्र्थत कोई ताधा न व रहता । मैंने सम्पूर्ग ग्रन्थ का अपनी बुद्चनुसार सुलानुगासी हिन्दी श्रनुवाद किया है । साथ ही दोहे का श्रन्वय भी लिख दिया है । म्नुवाद का काम बड़ा जटिल है । सम्कृत भाषा मे सन्घि म्ौर समास के प्रचुर प्रयोगों के द्वारा सक्षिततता को जा विशिष्ट गुगा आरा जाता है, ऐसा खड़ी बोली से नहीं है अत अ्रचुवाद करते समय बाउयों को तोड़ना पड़ा हैं, छोटेन्छोटे सरल वाक्य भी बनाने पढ़े हैं । म्रनुवाद कसा बन सका है- इसका मसुल्याकन तो पाठक ही करेंगे । श्रनुवाद करते समय पूव उपलब्ध झनुवादों ने इस जटिल कार्य मे मेरी सहायता की है, मैं उन सभी महान श्रात्मात्री प. दौलतरामजो, पं. सनोहरलालजी शास्त्री श्रादि का हृदय से झ्ाभारी हैं ! मैं परमादरगीय पं. जवाहरलालजी सिद्धार्तलास्त्री (भीण्डर ) के प्रति श्रपता श्राभार व्यक्त करता हैं जिन्होंने श्रनुवाद सम्बन्धी मेरी शकाओओ का नत्परता से परिहार किया एव मेरे श्नुरोध पर इस सस्करगा के लिए प्रस्तावना मी लिख कर भेजी ! पण्डित जी अ्ात्मगोपन प्रकृति के प्रतिभाशालों युवा विद्वानु हैं। यो तो सभी झ्रनुयोगों में ग्रापकी समानसनि है परन्तु कररगालुयोग का इन जैसा दूसरा कोई विशिप्ट दिढ्ानू सभी सही, पाप सच्चे ध्रर्धों मे स्व पे रतनचन्दजी मुख्तार के उत्तराधिकारी शिष्य है । शरीर से रुग्ता होते हुए भी आप झनवरत शास्त्राध्ययन में सलग्न रहने है । मैं श्रपने विनीत प्रसास निवेदन करते हुए यही कामना करता हूं कि शाप स्वस्थ एवं कर दीरघायु हो झ्ोर जिनवास्ती-रसिकों व जिनज्ञासुग्रों का सारगेदर्णन करते रहे । थ््य रू हे --




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