स्वतन्त्रता का सोपान | Swatantrata Ka Sopan

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Swatantrata Ka Sopan by बी. सीतलप्रसाद - B. Seetalprasaad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| स्वशंत्रता का सोपान स्वतः ही छट जाता हैं। स्वतंत्रता मेरी ही निज गयरी है। उसी में विश्ञाम करता हूं । জী সপ সপ ५. सहज सुखों का घर स्वतन्त्रता आत्मा का स्वतन्त्र हक है। स्वतन्त्रता आत्मा का निज स्वभाव हैं | स्वतन्त्रता से पूर्णपने आत्मा की शब्ितियाँ अपना-२ काम करती हैं। स्वेतन्त्रता बधनों के त्याग से होती है। बंधनों को काटना उचित है । बन्धनो मे अपने को पटकने वाला ही यही आत्मा है। जब यह राग-हेष, मोह से मैला होता है यह अपने मे कर्मबम्ध कर लेता है। जब यह वीतराग भाव से शुद्ध होता है तब यह कमंबन्ध काट कर स्वतन्त्र हो जाता है। वीतराम भाव में रहने का उपाय पर से असहयोग ब आत्मा के साथ पूणे सहयोग है । एकदम अपने आत्मा की सम्पत्ति के सिवाय पर सम्पत्ति से पूर्ण वैराग्य को आवश्यकता है। तथा निज ज्ञान दशन सुख वीर्यादि सम्पत्ति से पूणे अनुराग को आव- श्यकता है । जो जिसका प्रेमी होता है वहू उसको अवश्य प्राप्त कर लेता है। स्वभाव का प्रेम करना ही सम्यग्दर्शन है। स्वभाव का जानेना सम्यग्जञान है। स्वभाव मे लीन होना सम्यक्चारित्र है। स्वभाव मे रमण की आवश्यकता है। स्वभाव में रमण का उपाय स्व-स्वभाव में ही स्व-स्वभाव रूप देखना है। जब हेय की अपेक्षा से स्व-पदा्थ को देखा जाता है तो यही भासता है कि उस पदार्थ में पर वस्तु का संयोग त कभी था न है, न कभो होगा । वह सदा ही अबन्ध-अस्पृश्य है, एक रूप है, अभेद है, निश्चल है, पर सयोग से रहिनि है । परसे शृन्य व निज सम्पत्ति से अशृन्य है । मनव इन्दियो से अगोचर है । परन्तु अपने अतीन्द्रिय स्वभाव ते अनुभव करे योग्यदहै। सहज अनं दक्षेनका “सागर दै ! सहज वीये तथा सहज सुखो का घर है ¦ ईसमे ज्ञाता-ज्ेय, ध्याता-ध्येय, कर्ता, कमे, क्रिया, गण, गुणी, एक-अनेक, नित्य-अनित्य,




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