प्रसादजी का अजातशत्रु | prasaadajee ka ajaatashatru

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ६ ] का अशयन करना आरंभ किया था, उसका विकास ओर प्रचार क्रमशः दोने लगा। जिस संमय॑ साहित्य-जगत में खड़ी बोली. का जान्दोंलन चल रहा था उसी समय उनकी दो कविता-पुस्तके प्रकाश में आयी-- “ महाराणा का महत्व ” और “ प्र म-पथिक ' । इन दो कांड्य ग्रन्थो ते काव्य-साहिस्य मे उथल-पुथल पेदा कर दिया। आज भी आशा तथा उत्सग से भरा हुआ यह उदूधोध कितने का कंठेहार बना हुआ है- £ इख पथं छा उद्श्य नहीं है धरति सेवन मेँ टिक सदना, किन्तु पवना ऽस सीप्रा पर जिसके धागे राह नहीं।! --प्रंस पथिक ] आल जयशंकर प्रसाद दिम्दी के युग-प्रक्तक कवि मनिः जाते हैं। उन्हें संस्कृत के ब्रृत रुचिकर थे, इसीलिए उन्होंने तुकंयिदीन कविताओं कीं रचना की परन्तु आगे चलकर इनके छत्दों ने भी अपनां-अपना सागं निकांला । प्रसादज्ी कभी पिंगंलानुसार न्दो मे, कभी उद्‌ बहरों में, कभी स्वर्निर्मित न्धो में और कभी संगीत क लय के आधार पर कविताओं कीं रचना किया करते थे। सी समय खड़ी बोलती कं लिए आन्दोलन इभा था मौर कवि अन्तर्मावना की प्रगल्म चित्रमयौ व्यंज्ञना फे उपयुक्त स्वच्छुन्द नूतन-पद्धति निकाल रहे थे। पौंछे उसे नूतन- पड़ुति पर असादजी ने भी कुछ छोटी-मोटों कविताएं लिली जी सं० ३६७५ (संच्‌ १६१८ ) में “भरना? के भीतर संगृहीत हुई | « झरना † कौं उम चोबीस कविताओं मे उस समय नूतन पद्धति पर निकलती हुईं कविताओं में कोई ऐसी विशिष्टता नहीं थी जिसः मर ध्यान जाता । दूसरे संस्करण में, जो बहुत पीछे संबल १६८७




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