युगपुरुष महापुरुष | yugapurush mahaapurush

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yugapurush mahaapurush by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महात्मा गाँबी १ चौवीसं षष्टो मे दसस के बहृत्तर चष्ट का काम कृर सक्ते धे तो उसका कार्ण यही था कि वे निर्धारित समय से ही सब काम करते थे 1 दे सबके सुख-दु.ख मे सम्मिलित होते थे । किसी के भी वियोग पर बे सहानुभूति का सन्देश भेजने थे। समी उनके पास जा सकते थे शौर भपनी समस्याझ्रो का समाघान करा सबते थे । सत्यत्रियता, निर्मीकृता और स्पष्टवादिता उनकी भौर विशेषताएँ थीं दे दृढ़प्रतिज्ष थे, सब कार्यकर्तताओरों। से निकट रुम्बन्ध बनाये रखते थे, सद काम सुचारु रूप से कुशलत्तापूर्वक करते थे, वे अतीव परिथरपी थे । वे बड़े-बड़े कामो में लगे रहते हुए भर जटिल समस्याप्रो का समाघात करते हुए भी भपनी विनोद-चृत्ति का त्याग न करते थे) वे सदा हेंसतें-हेसाते रहते थे ! वे सबसे प्रेंम करते थे । वे समी प्रकार के लोगों को पग्रपती थोर श्राइष्ट करते थे । विरोधी भी उनका सम्मान करते थे । स्वतस्त्रता-प्राप्ति के बाद उनकी प्रार्थेनासमा के भहाते में बम-विस्फोट हुमा । लेकिन इससे वे तनिक মী उद्विग्व म हुए | वे निविकार थे । उनको प्रार्थंवा-समा नित्य निममित रपर तनै रोती रही । वै ब्रारक्षी संरक्षण को नापसन्द करते थे। सचाई यह थी कि कोई कल्पना में भी यह नहीं सोचता था कि उनपर कोई पझात्रमण करैया। पूछा जा सकता है, दया भारत-विभाजन की बल्पना किसी ने की थी ? कौन जानता था, प्रकारण प्रप्रत्याशित-कह्पनातीत ढंग से मारत-विमाजन में सत्तर-अस्सी लाख लोग मारे जायेंगे भौर डेढ़ करोड लोगो को घर-बार, कुट्म्ब-परिवार छोडकर विस्पापित होता पढ़ेगा ? गाधीजी ने स्वयं कहां था--“सोचता हूँ तो मेया सिर चकराता है। यह सब हुभा कमे? विर्व के इतिहास मे रेची दुषंटना कमी मही हई, इसके कारण मेदा धौर पापका सिर श्म से भुक जाना चाहिए ।” दस्तुतः हमारा सिर ३० जनवरी, १६४५ ६० की दाम के पाँच बजदर पाँच मिलेंट पर कर्म से कुक गया | पाधीडी, उपदास के बाद जिनवी दुबंलता दूर नहीं हुई थी, अपनी पोती भौर पोते बी बहू का सहारा लेकश प्रार्थना-सभा में जा रहे थे। अवस्मात्‌ एक मुबक भागे बढा, बापू के चरणों भे कुक भौर घुटने टेक्‍्कर प्जांतशत्रु पर घॉग-धाँय गोलियां दागने लगा ) भांधीजी ने हाथ जोड़े, 'हे राम (' कह्टा भौर धरा- पी हो शवे । कया इतना बडा दुष्काण्ड इतने भोछे हाथो कमी हुआ ? सेंक्ति 'जरा' नाम के व्याध फे हायो द्वारकाधीश के गोलोक जाने की बात भी बुछ ऐसी ही है । महामारत के बैमवकाल मे स्वर्ण-दारवा-प्रधीश्वर श्रीप्कृण भौर परतम्ध्र भारत गो ष्टोरी-सी सुदामापूरी मे जन्मे रामभक्त जनमेवक धो मोहनदास कर्मचन्द गाँधी के महाप्रयाण में समानता देखता समसामयिक को पौराणिक बनाते की व्यपे बेष्टा हौगौ | गांधीजी के जन्म-मरण के वोच एक पद्‌ मून साम्य देखना दी परवाप्त होया । उनका জন্ম २ भकटूबर, १६६६ ई० के दिन एक एसे स्वत में हुआा था जिसके एक झोर ओोदृष्ण वा मन्दिर था भोर दूसरी घोर श्रीराम शा, प्रोर मरण हू भा सन्ध्या को प्राना शामां मे ॥ एक सामान्य बालक के जन्म झौर एक महामानव के देहोत्सगें में साम्य वा एक ही तत्त्व हो सवता है दि प्रत्येष्ष नर मे नाराथण ধা লিলা ইহ




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