यशोधरा परिशीलन | Yashodhra Parishilan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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৫৬) प्राचीनता की अवद्देलना तथा नवीनता त रेयाग न किया । चे सदा हिन्दी साहिस्य की प्रमति करने में तत्पर रदे | उस युग का प्रतिनिभित्व कलने फे कारण आज के गीत-युग में भी दतिकृ्तारमकंवा कौ न भूल सके १ उन्दने गीतो को काव्यकी नवीन शैली मे लिखकर परवन्ध करव्यो मे उनका प्रयोग किया । समाज कव पुत्र छीयावाद तथा रहस्यवाद की श्रोर देखकर) उन्होंने भी मवीन दंग से श्पने काव्य में इसका समावेश किया। इंग में भंश' से लेकर श्राज तक के समस्त काब्यों में उन्होंने श्रनेक चरण रखे, किन्तु वे द्विवेदी-युग की भाषा-रोली, घलंकार, भाव तथा वलु श्ादि का त्याग न कर सके। कविता में कथा को प्रधानता ही द्विवेदौ-्युग की सबसे बढ़ी विशेषता थी। इस दृष्टि से गुप्तजी ने उस थुग का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व किया । इस बात की पुष्टि गुरचुल, जयद्रय वध, विकेट- मट, पंचव, वैतालिक साकेत) द्वापर, यरोधरा तया नट शादि काब्यों मे होती है। सामाजिक समस्याओं की गुप्त जी ने फमी शरवदेलना न फी । उनः काव्य में हैस्वर तथा राजाओं की प्रधानता हनि दृप्‌ भी, उसमें मानत्र के मुख-दुःख को ब्यापक करने का अनुपम प्रयास किया है। पुराणों तथा धर्मग्रन्थों से सम्बन्धित अनेकों कथाएँ झापने लिखी हैं | यही कार्य दिवेदी युग के सभी अधियों ने करना चोदा किन्तु फिर भी गुप्त जी को छोड़कर उनमें से किसी को युग का प्रतिनिधित्व करने का भय प्राप्त न हुआ । द्िवेदी-पुग भा एक महत्वपूर्ण सन्देश था--कश्शान्मूलक मानउ-ग्रेम, अनृहितार्थ शलेदान एवं राध्ट जागरण । यह व्यर्थ जितनी सफलता-पर्वेक ध्ाज तक गुप्त जो फरते आए. दें उठनी सफलता-पूर्वक कोई জহি সতী ক বয় । राष्ट्रआगरण बी मलऋ हमें 'भाएतआएती' में दिखाई घड़ती है । ॥ * गुप्त जी के হাহ का मूल सोत द्विवेदी-युग या। बहाँ से दह़ हे




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