अपभ्रंश साहित्य | Apbhransh Sahitya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
466
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अपभ्र झ-विपयक निर्देश চ
अर्थात् सस्कृत से विहत या अपश्रप्ट प्राइत का नाम भाषा और श्राहुत से
নিক बोली विभापा वहादी है ।
इससे प्रतीत होता है कि ये विमाषाएँ कमी साहित्यिक रूप से प्रचलित न थीं।
संमतः देदा दे साथ भी इनका सम्बन्य द्रारम्भ में न था। प्रशिक्षित बनवासी आदि
हो इनका व्यवहार करते थे ।
भामह (६टी शताब्दी) भ्रपश्न श को वाव्योपयोगी भाषा प्रोर काव्य वा एक
विशेष रूप मानते हैं--
হাহা सहितो परब्यं गद्य प्था च तद् द्िधा 1
संस्कृत प्राइत॑ चान्यदपश्रश इति त्रिधा ॥
वाव्यालपार, १. १६, २८
दरी (७ दी शताब्दी) बा विचार है--
श्रामीरादिमिरः काव्येष्वयश्च'ध इति स्मृताः ।
दास््रेु संष्टतादन्यदपधर शतयोदितम् ॥
कगव्याददां १. ३६
अर्थात् भाषाणास्त्र या व्याकरण में श्रपन्न श का भ्रं है सस्टृत से विदत रूपं ।
काव्य मे भामीरादि फी वोलिरयां श्रपश्नदा कहलाती है । दडी ने समस्त वाष्ूमय को चार
मागो मेँ विमक्त किया है--
तदेतद् बाड्मयं भूयः संरकृतं प्रातं तया ॥
अपक्र शश्च॒मिर्थ॑चेत्याहुरायश्चितुविधम ॥
वाव्या० १. ३२
अपभ्र श भी वाइमय वा एक भेद है । इनके समय सारित्यिक नाटको मे निम्न
श्रेणी के पात्री द्वारा ही इसका प्रयोग न होता था अन्यथा वाइमसय के भेदों में श्रप-
अंश की गणना न होती । दडी ने अपश्र श॒ में प्रयुक्त होने वाते श्रोसरादि कुछ छन््दों
या विभागों वा भी निर्देश क्या है---
संस्कृत सर्मबन्धादि प्राइत स्कन्धरादि यत् ।
ओसरादिरपश्न शो साटफादि सु मिश्रदम् ॥
काव्या० १, ३७
8 उपरिलिखित उद्धरणो गे प्रतीत होता है कि अपशभ्र झ् का आभीरो के साथ
सबंध वना हुआ था और इसीसे भ्रपशञ्न झ गप्राभीरोवित' या 'आभीरादिगी ' वही गई है ।
किन्तु प्राभीरीक्ति होते हुए भी इस समय अपश्न श्व में काब्य रचना होने लग गई थी ।
वलभी (सीराष्ट्र) का राजा घरतेन द्वितीय अपने पिता ग्रहसेन के विपय में कहता
है कि वह सस्डृत, प्राइत और अपभ्र श तीनो भाषाओं में प्रवन्ध-रचना में निपुणा था ।
संस्कृतप्राइतापश्न शभाषात्रयप्रतिवद्ध प्रवन्धरचना नियुरतदान्त.ङरणः इत्वादि ।*
वलमी के धरमेन द्वितीय का दानपत्र
१. इंडियव एंटिवयेरी, भाग १०, श्रक््तु० १८८१, पृ० হুল)
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