मज्झिम निकाय | Majjhim Nikaya
श्रेणी : दार्शनिक / Philosophical, बौद्ध / Buddhism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
428
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)| ব্য |
इश्वरके साननेपर, जैसा कि पहले कहा गया, भज्ुष्यको उलके अधीन सानना पड़ेगा, तथ
समुष्य आप ही अपना खासी है, जैसा चाहे, अपनेको बना सकता है---यह नहीं साना जा सकता ।
फिर भनुष्यकों शुद्धि आर झुक्तिके लिए प्रयत्ञ करनेकी गुंजाइश कहाँ ? फिर तो धर्मोके बताये रास्ते,
ओर धर्स भी निष्फल । ईश्वरके न सानमनेपर, भजुष्य जो कुछ वर्तसानमें है, चह अपने ही कियेसे;
और जो भविष्यमें होगा, वह सी अपनी ही फरनीसे । सलुप्यके काम करनेकी स्वतन्त्रता होने
ही पर धर्सके बताये रास्तों और घर्मकी सार्थकता हो सकती है । इंश्वरवादियों द्वारा सहस्नाव्दियोंसे
धर्मके लिए अशान्ति और ख़ूनकी घाराएँ बहाई जा रही हैं, फिर भी इइवर क्यों नहीं निपटारा
करता ? वस्तुतः ईइवर सजुष्यकी सानसिक सृष्टि है ।
(৭) आत्माकी नित्य न मानना
यहाँ पहले दमे यट समस खेन र कि वद्ध जनात्मताको केसे मानते हैं। बुद्धेके समय
बाह्मण, परि्राजक तथा दुसरे मतोके साचा सानते थे कि शरीरके मीतर घौर शरीरसे भिन्न एक
नित्य चेतनशक्ति है, जिसके आनेसे शरीरमसें उष्णता और श्ञानपूर्वक चेष्टा देखनेस आती है। जब
वह शरीर छोड़ कर कर्मानुसार शरीरान्तरमें चछी जाती है, तो शरीर शीतल, चेष्टा रहित हो जाता
है । इसी नित्य चेतनशक्तिको वे आत्मा फहते थे । सामीय ( $2८07010 ) धर्मोका भी, पुनर्जन्भको
छोड़ कर, वदी भत है। इनके भठावा छुद्धके समयमे दूसरे भी आचार्य थे, जिनका कहना था---
शरीरसे एथक् आत्मा कोई चीज़ नहीं; शरीरमें भिन्न-भिन्न परिसाणमें सिश्रित रसोंके कारण उष्णता
और चेष्टा पेदा हो जाती है, रसोंके परिमाणमें कमी-बेशी होनेसे चह चली जाती है। इस प्रकार
आत्सा शरीरसे भिन्न कोई वस्तु नहीं है। बुद्धंने एक ओर आत्माका निय कूटस्थ सानना, दूसरी ओर
शरीरके साथ ही शआात्साका विनाश हो जाना--इन दोनों चरम बातोंकों छोड़ सध्यका रास्ता
लिया । उन्होंने कहा--भात्मा कोई नित्य कूटस्थ वस्तु नहीं है, बल्कि ख़ास कारणोंसे स्कन््धों ( भूत,
सन )के ही योगसे उत्पन्न एक शक्ति है, जो अन्य वाह्म भूतोंकी माँति क्षण-क्षण उत्पन्न और
विलीन हो रही है । चित्तके क्षण-क्षण उत्पन्न होने ओर विछीन होनेपर भी चित्तका प्रवाह जब
तक इस शरीरमें जारी रहता है, तब तक शरीर सजीव कहा जाता है। हसारे अध्यात्म-परिवर्तन
ओर घारीरके परिवर्तनर्मे बहुत सम्नावता है ।
हसारा द्ारीर क्षण-क्षण बदुरू रहा है । चालीस वर्षका यह शरीर वही नहीं है, जो पाँच
वर्ष भोर बीस चर्षकी अवस्थार्मे था, और न साठवें वर्षमे बही रह् जायया । एक-एक अथु, जिससे
हमारा शरीर बना है, प्रति क्षण अपना स्थान नवोत्पत्रके लिए खाली कर रहा है ; ऐसा होने पर
भी हर एक विगत शरीर-निर्मापक परमप्नाणुका उत्तराधिकारी बहुतसी बातोंमें सदझश होता है । इस
प्रकार यद्यपि हमारा पहले वर्षवाछा शरीर दसवें चर्षमें नहीं रहता, और बीसवें वर्षमें दस वर्षवाला
भी ख़तस हुआ रहता है, तो भी सदश परिव्तनके कारण मोदे तोरपर हम शरीरको एक कहते
हैं। इसी प्रकार आत्मा भी क्षण-क्षण बदुरू रहा रे, रेकिन सद्या परिवतेनके कारण उसे एक
कहा जाता है। आप अपने ही जीवनकों ले लीजिए। दो वर्ष पूर्व दूरसे भी आपको सिगरेटका
धुआँ नागवार था, भौर अब उसे चावसे पीते हें । दो वर्ष पूर्व चिड़ियोंकों खयं मार कर फड़फड़ाते
देखना, आपके लिए सनोरंजनकी चीज़ थी; छेकिन अब आप दूसरे द्वारा मारी जाती चिढ़ियाको
फड़फड़ाते देख खय॑ फड़फड़ाने छगते हैं । यदि आपको अपने सनके झुकाव और उसकी अचृत्तियों-
को लिखते रहनेका अभ्यास है, तो आप अपनी पिछली दुस वर्षाकी डायरी उठा कर पढ़ डालिये ।
वहाँ आपको कितने ही विचार ऐसे मिलेंगे, जिन्हें दुस वर्ष पूर्व आप अपना कहते थे, किन्तु दस ..
वर्ष बाद झ्ाज यदि कोई आपके ही शब्दोंमें आपके पूवं विचारोको जापके सामने रखे, तो ~
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