सोम - सरोवर | Som - Sarovar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ध ) अव द्रोणानि धृतवन्ति रोह ।६.१० घीसे मरे, काठके कलो मे उतर | करश्च; पवित्रः चमू, अद्रि ओर द्रौण--इन उपकरणों का सम्बन्ध स्पष्टतया किसी भौतिक द्रव से ही हो सकता है । परन्तु जब आध्यात्मिक अनुभूति का वर्णन रस-रूप में किया जायगातो उसके साथ, रसों से सम्बन्ध रखने वाले उपकरणों की ओर संकेत होना स्वाभाविक ही है। हां ! वह संकेत होगा राक्षणिक ही। जैसे “कछश” के साथ “आविश्न” क्रिया का प्रयोग हुआ है, परन्तु आविष्ट कलश नहीं, हृदय होता है। इसी पव में अन्यत्र इसी क्रिया का प्रयोग हृदय के साथ हुआ भी हे, यथा न्द्र्स्य हावोविशन्‌ 1६.६ इन्द्रके हदय को आविष्ट करता हुआ। इस प्रकार कलछश की पहेली तो वेद ने स्वयं बुझा दी है। कलश हृदय ही हैं। भक्ति-रस का सवन हृदय के सिवाय ओर कहां हो सकता है ? “कलश” शब्द की व्युत्पत्ति भी इस अथे की पोषक प्रतीत होती है । वाचस्पत्य कोष में इस शब्द का निरवेचन इस प्रकार किया गया दै- ४ कल सधुराव्यक्त ঘন্রলি হালবি ৮-জখীলদু লী मधुर अव्यक्त शब्द करे वह कलछझ है। भक्त का हृदय सदा सीठा-मीठा अव्यक्त-सा शब्द करता ही रहता 6। उसमे अजपे जापकी क्रिया हर समय जारी रहती है । अब “पवित्र” शब्द को छीजिये। वेद स्वयं कहता है --




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