जिनवाणी | Jinvani

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Jinvani by गोपीनाथ गुप्त - Gopinath Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रद कारण भी जो ' जैन ' पत्रकों पढते है इन्हें यह वतलानेकी आवश्यकता नहीं है कि भाई छुशीडकी गुजराती भाषा एवं लेखनडैली साधारण खोर अपक्व नहीं है । बंगला और शुजराती भाषाका अच्छासा परिचय रखनेवाले और ढेखनदाक्ति-सम्पत्न अनेक भाई और कुछ वहिंनें भी आज गुजरातमें विधमान हैं, तथापि उनमेंसे किसीने भी इन लेखोंका अनुवाद किया होता तो वह इतना सफल होता, या नहीं, इसमे मुझे बहुत सन्देह है | क्यों कि, ऐसे लेखकॉमेंसे किसीको भी जैन गाल्नीय ज्ञानका, भाई सुशीछके समान स्पष्ट और पक्व परिचय हो ऐसा मै नहीं जानता । यही कारण है कि, भाई सुनील अपने अनुवाद-कार्यमें खूब सफल हुए हैं । इनका अनुवाय छेखोंक्ा चुनाव भी जैन दर्गनके विशिष्ट अम्यासियोंकि इृट्िकोणते समुचित है । क्यों कि, बहुत अधिक अध्ययन और निंतनंके पश्चात्‌ परिश्रमपूरवक, नवीन दैठीसे, एक जेनेतर बंगाली सजनकी लेखिनीसे लिखे हुवे ये लेख जिस प्रकार नव जिनज्ञापु गुजराती जंगतके लिये प्रेरणा देनेवाले हैं, जिस प्रकार ये ठेख गुजराती अनुवाद-साहित्यमें एक विश बद्धि करते है एवं दार्गनिक चिंतन-श्ेत्रमें उचित परिवद्धन करनेवाले हैं, उसी प्रकार ये; मात्र उपाश्रयसंतुष्ट एवं सुविधानिमग्न जैन त्यागीवर्गकों विगाल दृष्टि प्रदान करनेवाडे एवं उनके अपने ही विस्तृत कर्तन्यकी याद दिछानेवाढे है। प्रस्तुत ढेखोंके मूल ढेखक श्रीयुत्‌ हरिसित्य भट्टाचार्यजीसे बहुत वर्ष पहिले, ओरीएन्टछ कौन्फरन्सके प्रथम अधिवेगनके अवसर पर पूनामें भेंट हुई थी । उस समय ही उनके परिचयसे मेरे ऊपर यह छाप पड़ी थी कि; एक वंगाढ़ी और वह भी जैनेतर सजन होते हुए भी वे जन




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