विशुद्धि मार्ग दूसरा भाग | Vishuddhi Marg Part -2

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Vishuddhi Marg Part -2 by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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। परिच्छेद १२ ] ऋद्धिविध-निर्देश [ ३ विकुर्वण कठिन है। सैंकडों या हजारों में कोई एक ही कर सकता है। विक्रर्वण-प्राप्त हुए को भी शीघ्रतर ध्यान को समापन्‍न होना कठिन है। सेकढ़ों या हजारों सें कोई एक ही शीघ्रतर ध्यान को समापन्‍न होनेवाला होता है । महामहेन्द्र स्थविर के उतरने के आमद्रस्थान पर' महारोहण गुप्त स्थविर की बीमारी मे सेवा करने के लिये आये हुए तीस हजार ऋद्धिमानो में उपसम्पदा से आठ वर्ष की आयुवाले रक्षित स्थविर के समान। उनका अनुभाव प्रथ्वी-कसिण निर्देश में कहा ही गया है। उनके उस अनुभाव को देखकर स्थविर ने कहा--“आचुस, यदि रक्षित न होता, तो हम सभी निन्दित होते--'नागराज को नहीं बचा सके? । इसलिये अपने लेकर विचरने योग्य हथियार के मर को साफ करके ही लेकर विचरना उचित है ।” वे स्थविर के उपदेश पर चलकर तीस हजार भी भिक्षु शीघ्रतर ध्यान-समापन्‍न होनेवाले हुए । शीघ्रतर ध्यान-समापनन होनेवाला होने पर भी दूसरे की भतिष्ठा होना ( >उपद्गव को शान्त करना ) कठिन है। सेकड़ों या हजारों में कोई एक ही होता है । गिरिभण्ड-वाहन-पूजा' से सार दारा अंगार की वर्षा करने पर आकाश मे पृथ्वी बनाकर अंगारवर्षा से बचानेवाले स्थविर के समान । किन्तु, बलवानू पूर्व योगवाले बुद्ध, प्रत्येक-चुछ्ध, भ्षग्रश्नावक आदि को बिना भी उक्त प्रकार की भावना के अनुक्रम से अहंत्व की प्राप्ति से ही यह चिक्रुर्षण और अन्य प्रतिसम्मिदा आदि नाना प्रकारके गुण प्राप्त हो जाते हैं। इसलिये जैसे किसी प्रकार के आभूषण को बनाने की इच्छावाख सोनार अग को धमने आदि से सोने को झरूदु, काम करने योग्य करके ही बनाता हे ओर जैसे किसी प्रकार के बर्तन को बनाने की इच्छावाखा कुम्हार मिद्दी को भली प्रकार गूँधकर दु करके बनाता है, ऐसे ही प्रारम्भिक ( योगाभ्यास ) वारा इन चौद आकारो से चित्तका भरी प्रकार दमन करके छन्दशीषं, चित्तशीर्प, वीयेशीष, मीमांसाशीर्ष के समापन्न होने और आवर्जन आदि वशीभाष के रूप से रूदु, कर्मण्य करके ऋद्धि-विध के लिये योग करना चाहिये । पूर्वहेतु से युक्त को कसिणों में चतुर्थ ध्यान मात्र में अभ्यस्त चशीवाले को भी करना उचित हे । जैसे योग करना चाहिये, उस घिधि को बतलछाते हुए भगवान्‌ ने--“वह ऐसे समाहित चित्त होने पर”” आदि कहा । ' यह पार्कः के अनुसार दी विनिश्वय-कथा है-- वहा, सो- वह चतुर्थ ध्यान को प्राप्त योगी । प्एवं-- यह चत्तथं ध्यान के क्रम का निदर्शन है। इस प्रथम ध्यान प्राप्त आदि के क्रम से चतुर्थ ध्यान को पाकर कहा गया है। समाहिते--इस चतुर्थ ध्यान को समाधि से समाहित - (८ एकाग्र ) होने पर । चिक्ते--रूपावचर-चित्त में । परिखद्धे- आदि में उपेक्षा से उत्पन्त स्खृति की पारिशुद्धि से परिशुद्ध होने पर । परिशुद्ध १, वर्तमान्‌ अनुराधपुर ( छका ) से ८ मील दूर मिहिन्तले पर्वत पर वह स्थान है, जहाँ प्र महामहेन्द्र स्थविर उतरे थे, उसे “अम्बेंतल” कहते है । २, प्राचीन काल मे छलका में चैत्यगिरि ( क्सैंगिरि- मिहिन्तले ) से लेकर सम्पूर्ण दीप और समुद्र मे योजन-योजन मर तक महती प्रदीप पूजा होती थी, उसे ही गिरिभिण्ड-वाहन-पूजा वहा जाता था । पालि इस प्रकार है--“सो एव समाहिते चित्ते परिस॒द्रे परियोदाते अनद्धणे विगतृपककि- लेसे सुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेज्ञप्पत्ते इद्धिविधाय चित्त अभिनीष्टरति अभिनिन्नामेति ! सो अनेक- विदित इदिविध पच्नुभोति, एकोपि हत्वा ब्रहधा दति | दीघ नि° १, २।




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