साहित्य - विहार | Sahitya Vihar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्तों के व्यंग १६ नखरा राह-राह कौ नीको | হু জী সান जात हैं तुम चिनु, तुम न लखत दुख जी को । आवहु, बेगि नाथ, करुना करि, सति जु करो मन फीको ॥ (रीचम्द्र! अठिल्ानपने कौ, बिधि ने दियो तुब टोको | और भी-- खोटाई पोरहि-पोर भरौ । भारतेन्दुजी ! यह श्राप क्‍या कहते हैं ! काले रज्धवाले तो सभी खोटे दोते हैं। यह रज्ञं का प्रभाव दै--. ऊधो ! कारे स्वै बुरे । कारे की परतीति न क्रिये, विष के छुते छुरे। कारो श्रंजन देते दगनरमे, तीखी खान धरे ॥ नाग नायि हरि बाहर आये, फन-फन निरत करे | कोयल के सुत कागा पाले, अपनोहि ज्ञान धरे ॥ पंख लगे जब गये सु उड़ि वै, अपने काज सरे । शसूरस्यामः कारे मतवारे, कारे तें काल इरे ॥ काले से काल भी काँपता है । अर्थ स्पष्ट है । काले कृष्ण से तो काल डरता ही है, उनके भक्तों के भी पास उसकी दाल नहीं गलती । >< ১ ১ , विरक्त और मुक्त से अनुरक्त का स्थान कीं ऊँचा हे । अनुरागी दी दिल खोल कर भगवान से बात कर सकता है। एक दिन श्रीकृष्ण को एक , अनुराग-रंगीली गोपिका ने ऐसा छुक्राया कि অজিত ही होना पड़ा | बह थी राधिकाजी की तरफ़दार | कद्दती है-- * सूकर छे कब रास रच्यो; अरु बामन छू कब गोपि नचाई ? मीन है कौन के चीर हरे, तिमि कच्छुप छै कब वेनु बनाई ? होय चृसिह, कटो हरि घू ! तुम कन को तिन रेख लगाई ? कीर्ति-सुता प्रगटी जवं तं तध ते सुम रेजि-कला-निधि पाड ॥ * चिना गुरु-कृपा के कौन किस विद्या में पारंगत हुआ १ राधिकाजी के तो श्रीकृष्ण पूर्णृतः अधीन हैं | इसलिये कि आप को 'केलि कला-निधिः उन्हीं




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