साहित्य - विहार | Sahitya Vihar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
134
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भक्तों के व्यंग १६
नखरा राह-राह कौ नीको |
হু জী সান जात हैं तुम चिनु, तुम न लखत दुख जी को ।
आवहु, बेगि नाथ, करुना करि, सति जु करो मन फीको ॥
(रीचम्द्र! अठिल्ानपने कौ, बिधि ने दियो तुब टोको |
और भी--
खोटाई पोरहि-पोर भरौ ।
भारतेन्दुजी ! यह श्राप क्या कहते हैं ! काले रज्धवाले तो सभी खोटे
दोते हैं। यह रज्ञं का प्रभाव दै--.
ऊधो ! कारे स्वै बुरे ।
कारे की परतीति न क्रिये, विष के छुते छुरे।
कारो श्रंजन देते दगनरमे, तीखी खान धरे ॥
नाग नायि हरि बाहर आये, फन-फन निरत करे |
कोयल के सुत कागा पाले, अपनोहि ज्ञान धरे ॥
पंख लगे जब गये सु उड़ि वै, अपने काज सरे ।
शसूरस्यामः कारे मतवारे, कारे तें काल इरे ॥
काले से काल भी काँपता है । अर्थ स्पष्ट है । काले कृष्ण से तो काल
डरता ही है, उनके भक्तों के भी पास उसकी दाल नहीं गलती ।
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, विरक्त और मुक्त से अनुरक्त का स्थान कीं ऊँचा हे । अनुरागी दी
दिल खोल कर भगवान से बात कर सकता है। एक दिन श्रीकृष्ण को एक ,
अनुराग-रंगीली गोपिका ने ऐसा छुक्राया कि অজিত ही होना पड़ा | बह थी
राधिकाजी की तरफ़दार | कद्दती है-- *
सूकर छे कब रास रच्यो; अरु बामन छू कब गोपि नचाई ?
मीन है कौन के चीर हरे, तिमि कच्छुप छै कब वेनु बनाई ?
होय चृसिह, कटो हरि घू ! तुम कन को तिन रेख लगाई ?
कीर्ति-सुता प्रगटी जवं तं तध ते सुम रेजि-कला-निधि पाड ॥ *
चिना गुरु-कृपा के कौन किस विद्या में पारंगत हुआ १ राधिकाजी के
तो श्रीकृष्ण पूर्णृतः अधीन हैं | इसलिये कि आप को 'केलि कला-निधिः उन्हीं
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