मुक्तिद्वार | Muktidwar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
32 MB
कुल पष्ठ :
787
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दे (१७
कुछ लोग कहते है कि वर्तमान मे तोध-बैराग्य की स्थिति हो जाने पर
सी पूर्वे तथा वर्तमान जन्म के पूर्व भुलदशा मे किये. गये शुभाशुश्त रूप सचित
कर्म जीव को नाना योनियों में भटकायेगे । विशालदेव कहते है यह बात सही
नही है । क्योकि वर्तमान के अज्ञानयुक्त क्रियमान कर्म के आधार पर ही भुत-
पर्व के संचित कम फल देने से है । जब व्यक्ति वर्तमान मे बोध-वैराग्य
की अखण्ड धारणा मे ठहर जाता हैं, तब सचित कमे शक्तिह्दीन होकर नष्ट
हो जाते है।
दूषित क्रियायें और विपयासक्ति जितनी निटती जाती है, उतना ही
पूर्व के संचित कर्म भी क्षीण होते जाते है । जब विषयासक्ति सर्वथा मिट जाती
है, तव जीव बंधनो से सर्वथा मुक्त हो जाता है । जो दीर्घकाल से वैराग्य
साधना मे एकरस लगा है उसकी उत्तरोत्तर देहासक्ति क्षीण होकर वह मुक्त
होता जाता है। जिसका मोक्ष ध्येय अडिग है, उसके वैराग्य का पुरुषाथे
एकरस चलता है ।
जीव के बंधन तीन कर्न है--क्रियमाण, सचित और प्राख्य । वर्तमान
से अज्ञानयुक्त जो पाप-पुण्य करें होते है वे क्रियसाण कम है, पुर्वजन्मो या इस
जन्म के पूर्व भूल दशा के पाप-पुण्य कर्म सचित करें है और सुख-दुख भोग के
लिये प्रस्तुत शरीर--प्रारब्ध कर्म है । क्रियमाण ही सचित और प्रारब्ध
होता है ।
कुछ लोग कहते है कि जीव पूर्व सचित (संस्कार) के अनुसार ही
क्रियसाण करें करता हैं । यदि उसके मन में पाप के सस्कार है तो वह पाप
करता है, पुण्य के सस्कार है तो पुण्य करता है । विशालदेव कहते है बिलकुल
यह मानना ठीक सही । यदि ऐसा हो तो जीव के साथ पाप या पुण्य--एक
ही प्रकार का कमें होना चाहिये । पुण्य सचित, तदनुसार पुण्य करमें तथा उसी
प्रकार पुन. पुण्य ही संचित और क्रियमाण । परन्तु ऐसा नही देखा जाता ।
एक ही जीव के साथ पाप-पुण्य के विविध संस्कार एव कर्म रहते है । अतएव
मनुष्य स्वतंत्र है । वह बुरे सचित संस्कारो को दवाकर भला क्रियमाग (कम)
कर सकता है तथा भले संस्कारो को दबाकर बुरे कर्म कर सकता है । मनुप्य
सगत आर समझ बदलने तथा तदनुसार कर्म करने से स्वतन्र है । अतएव
अच्छी संगत, समझ अपना कर वह अच्छा बन सकता है चाहे व पहले
कितना ही पापी रहा हो । जीव ही तो कर्मों .का निर्माता हैं, अतः वह कर्म
को उखाड़ फेकने मे भी समये है ।
जो लोग साधु-धक्त के वेप तथा परमार मार्ग मे आकर भी कल्याण
के हेतु-शुत सत्सग के लाभ से वचित रहते है, उसका कारण विशालदेव
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