नीलमदेश की राजकन्या | Niilama Desh Kii Raajakanyaa

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Niilama Desh Kii Raajakanyaa  by Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हू ... ७ दडाए-दाष डे थी जो इस कमरेकी रातको दिन बनानिकी भीख माँगती लगती थी । कुरसींपर बेठे बेठे उन्होंने कदा--कुछ दवा नहीं ? मैंने कहा--दवा आपको जरूर चाहिए तो जरूर दूँगा । जी ही क्यों जरूर नहीं चाहिए ? मैंने एक शीशी्में कुछ बनाकर तैयार कर दिया । और कहनेवाला ही था चलिए कि उन्हेंनि पूछा-- डाक्टरसाहब मरी निगाह ठीक हो जायगी मैंने कद्दा--निगाह तो ठीक ही है । सुन कर वह चुप हो गई । मैं भी चुप रहा । सब चुप था ।--जेसे समय भी चुप ठहर गया हो । बाहर बैूँदें टपटप टपकती थीं । वह टपटप अस्पष्ट कमेरेमे आ रद्दी थी । माना जीवनका वे ही वहाँ लक्षण थीं या कि हम दोनोंके श्वास । तीन मिनट चार मिनट हो गए । वे तीन-चार मिनट बेहद भारी होते गये । द्ाथ कुछ न आता था जा उन घड़ियोंको टाल दे और अटल हो कर वे एक एक पल मन मन भर भारी होते जाते थे । माना अब मिथ्याचार टिकाये न टिकेगा 1 मैं डाक्टर हूँ इसको कुचल कर यह प्रतीति मानो ऊपर आही रहेगी कि मैं पुरुष हूँ और यह भी कि जो कुसीमें है वह मरीजा तो चाहे हो ओर चाहे न भी हो पर वह सुभद्रा है । दाहदसे भी भारी ये दो आत्माओंके बीचके सन्नटेकी घड़ियाँ असह्य होती चली गई । चौथा मिनट होते होते आखिर मानो मोह तोड़ अपने साथ एकदम झटपट मचाकर मैंने कददा--चढलिए दवा बन गई है । उन्होंने भी जैसे खोई सुध पाइ । उन्होंने कहा--आप मरीजके इतमीनान- का इतना दी ख्याल रखते हैं डाक्टर साहब ? ठहरिए बतलाइए मेरी आँख ठीक हो जायगी ? मैं अब चालीसकी होने आती हूँ । मैंने घीमेसे कहा हाँ जरूर हो जायगी। फिर हम लोग उठकर बाहर दफ्तर आ गये । महिलाने वहाँ घीमे धीमे मानो विचारपूर्वक हार्थोमें दस्ताने पहनने झुरू किये । उसी समय उन्होंने कहा आपकी कृपाके लिए डाक्टर साहब में बहुत कृतज्ञ हूँ । यह कहकर मेरी फीसके बीस रुपये निकाल कर मेरे सामने मेजपर रख दिये । वे दोनों नोट नये रंगीन क्रिस्प मेरी निगाहके आगे बिछेके बिछे ही रद




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