अर्वाचीन प्राचीन भजन संग्रह | Arvachin Prachin Bhajan Sangrah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
654
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१३
সপ পেশ শিপ
तन ভ্রম बांछित प्रापति भानों,पुण्य उदय दुख जाना ॥११
एक विहारी सकल ईश्वरता, त्याग महोत्सव माना ।
सब सूखकों परिहार सार सुख, जानि राग रुष माना ॥२॥
चित स्वभाव को चित्य प्रान निज, विमल ज्ञानद्गसाना ।
'दौल'कौन सुखजान लह्यो तिन,करो शांति-रस पाना ॥३॥॥
( २५ )
मेरे कब हूं वा दिनकी सुघरी ॥ टेक ॥
तन बिन बसन असन बिन वनमें,निवर्सों नासादृष्टि घरी ॥१
पुण्य पाप परसों कब बिरचों,परचों निजनिधि चिर बिसरी।
तज उपाधि सजि सहजसमाधोी,सहों धाम हिसम मेघकरी ॥२
कब धिरजोग धरो एेसो मोहि, उपल जान मृग लाज हरी ।
ध्यान-कमान तान भ्रनुमव-शर, छेदों किहि दिन मोह भ्ररी ॥
कब तृण कंचन एक गिनों भ्रर, मणि जडितालय शेलदरी ।
दौलत' सत गुख्वरन सेव जो, पुरुवो भ्राश यहै हमरी ॥॥४
( २६ )
जम झ्ान भ्रचानक दाबेगा ।। टेक ॥।
छिन २ करत घटत थित ज्यों जल,प्रंजुलिको भर जावेगा ॥१
जन्म तालतरुते पर जियफल, कोंलग बीच रहावेगा ।
क्यों न विचार करे नर॒ भाखिर, मरन महीमे जावेगा ।२
सोत मृत जागत जीवत ही, इवासा जो धिर थावेगा।
जसे कोऊ छिपे सदासो, कबहु श्रवद्ि पलावेगा ॥३
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